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________________ 793 "लोक विलोक, कर्या विलोचन, हर्यो भर्या हद हेज जी, दर्शन कर्या कि संचित पातक झर्यो न लागे जेज जी ।' पूज्य डालगणि के सान्निध्य में रहते हुए मुनि कालू अपना सर्वांगीण विकास करते हैं, और डालगणि अपने उत्तराधिकारी के रूप में मुनि कालू का नाम लिख देते हैं । जैसा परम्परा है उत्तराधिकार सौंपने की बाह्य रश्म के तौर पर पछेवड़ी पहनाते हैं । मुनिश्री मगनलालजी के आग्रह- निवेदन से नई पछेवड़ी सम्भालते आचार्य कालू की छवि दिव्य छटा बिखरने लगता है । डीले उपरी दुपटी दीप धवल प्रकाश, पूज्य वदन रयणी, घणी प्रकटी ज्योत्स्नाभास । १४ आचार्यश्री तुलसी कई बार फरमाते हैं पूज्य कालूगणि के जो भी चित्र उपलब्ध हैं पूर्ण यथार्थ नहीं । यदि मैं चितेरा होता तो हू-ब-हू चित्र खींच देता । पर शब्दों के माध्यम से उभरता कालूगणि का यह चित्र किसी छायाचित्र से कम नहीं प्रतीत होता । मुनि कालू के कन्धों पर जब शासन का भार आ जाता है आचार्यपद का दायित्व उनके चेहरे की कान्ति में नया निखार ला देता है । वही लुभावना दृश्य यहां आकार ले लेता है । शब्दों की लचक स्वरूप को भी प्रकट कर देती है । 'चलकतो चलक- चलक चेहरो, मलकतो श्रमण संघ सेहरो । विलोकन खलक - मुलक भेरी, अलख छक खमां-खमा केरो । १५ गुरु के वर्धापन का अवसर हो और शिष्य का पोर-पोर अनिर्वचनीय दिव्यता से सरोबार हो जाए - इसी में गुरुता और शिष्यता सार्थक है । अपने गुरु की दिव्यता का चित्रण बहुत ही कमनीय बन गया है । "म्हारे गुरुवर रो मुखड़ो है खिलतो फूल गुलाब सो । शशांक सौम्याकार ।" ललित लिलाड़ । मुखड़े री छवि मनहार मुखड़ो मुखड़ो अमन्द अविकार भलकै साधु-समाज का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है 'तिन्नाणं तारयाणं' तैरते हैं औरों को तारते हैं और इसका महत्वपूर्ण साधन बनता है प्रवचन - उपदेश । सभ्य सभा उत्कंठा के अतिरेक से चित्रित हो जाए- पूरी तरह से प्रवचन पीयूष का पान करने में डूब जाए - इसी में वक्ता का साफल्य है । यहां एक स्पष्ट चित्र है । सुधा-भरे मुख-निकरें, छवि चकौर अनिमेष, बासर में हिमकर रमें या कालू गरु एष, सभा सभासद स्व पर दर्शणी चित्रित चित आलोच चरचा-चरचा सदा चरचता मौन खड़या कोई सोच ||" १७ 'आत्मना युद्धस्व' का महान् लक्ष्य लिए हुए वे निरन्तर युद्ध क्षेत्र में कटिबद्ध थे । उसी आत्म सैनिक की एक छवि - खण्ड १९, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३५७ www.jainelibrary.org
SR No.524578
Book TitleTulsi Prajna 1994 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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