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प्रकट करता यह शिल्प ।
"मैं स्वयं बण्यो अज्ञात-भार स्यूं भारी । प्रत्येक कार्य में प्रगटी स्थिति दुविधा री ।। बैलूं तो कठ, कियां किण रीते बैलूं ? बोल-चालू बाहिर या भीतर पेठू ?" 'यदि अनुचित रीते एक ही कदम बढ़ाऊं।
अनभिज्ञ कहाडं, हास्यास्पद बण ज्याऊ ।।३५
पद-पद पर सजग युवाचार्य तुलसी और समय के बढ़ते चरण, पर भवितव्यता को कब कौन रोक पाया है ? अब कवि के सामने वर्णन के लिए विषय उपस्थित हो गया है, जिसकी कल्पना या स्मृति मात्र से ही मन विषण्ण हो जाय । पर जो कुछ वर्ण्य विषय है मनः स्थिति भी वैसी ही हो जाती है, भले ही दृढ़ हृदय से। पर जब वर्णन प्रारम्भ किया है तो अंतिम समय को भी वणित तो करना ही होगा। और कवि के विवश कर्तव्य से व्यक्त होता है हृदय का यह छायांकन ।
"देखो भादूड़ा री छठ अणतेड़ी आवै रे जिणरो वरणन करतां अक्षर घड़ता जी घबराव रे
जी घबरावै मन घबरावै बिरह बढ़ावै रे। 3६
और जब नश्वर देह धर्म सिमट चुका तो स्मृतियों के बादल भर आए । पल-पल छिन-छिन उभरती स्मृतियों का बिम्ब ।
पडणे रे समय रे लोय, बढ़ण रे समय रे लोय । मैं नहिं जाणी रे मुझ बूथ स्यू कइ गूणो ? भार भूलावस्यो रे लोय, यूं पधरावस्यो रे लोय म्हारा मन री रे बातडली स्वामी ! सुणो ।
और इस प्रकार युवराज तुलसी की छवि यहां विराम ले लेती है। और आचार्य तुलसी का छायांकन दिखाने का विषय इस काव्य में नहीं। उसके लिए तो खुली आंखों प्रत्यक्ष दर्शन ही उपलब्ध काव्य है। मानवेतर बिम्ब
__ मानवीय बिम्बों के अतिरिक्त अनेक मानवेतर बिम्ब भी यहां स्पष्ट रूप से प्रकट हुए हैं। मानवेतर बिम्बों में प्रधान रूप से प्रकट होता हैऋतुओं का दृश्य । छहों ऋतुओं का साकार वर्णन विवेच्य काव्य में उपन्यस्त
ऋतु वर्णन
सर्दी का वर्णन राजस्थानी धोरों में शरद् ऋतु से घटित होने वाला ठिठुरन भरा दृश्य गहनता व प्रवीणता के साथ परिलक्षित होता है।
तुलसी प्रज्ञा
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