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है। किन्तु हम जानते हैं कि बिन्दुसार की मृत्यु और अशोक के अभिषेक के बीच चार वर्ष बीते थे। उन्हें जोड़ देने से १३६ वर्ष पूरे हो जाते हैं बाकी एक वर्ष शालिशूक का शासनकाल है । सम्भवतः उसके शासनकाल में मलमास पड़ा था और मलमास मिलाकर उसने तेरह मास शासन किया। इसी से उसकी शासनावधि १३ वर्ष समझाने की भ्रान्ति उत्पन्न हुई होगी। ध्यान देने की बात यह है कि १३ वर्ष का उल्लेख केवल वायुपुराण की एक प्रति में है। शासनावधि कम होना पुराणों में उसके उपेक्षित होने का एक कारण हो सकता है।
शालिशूक के प्रति पुराणों की विमुखता का दूसरा कारण उसकी क्षुद्रता, प्रजापीड़न और स्वजनों के प्रति दुर्व्यवहार प्रतीत होता है। युगपुराण की शालिशूक सम्बन्धी पंक्तियों को ध्रुव से कुछ भिन्न रूप में किन्तु हस्तलेखों के निकटतर रखकर पढ़ें तो हमारी इस धारणा की पुष्टि होती है :
तस्मिन् पुष्पपुरे रम्ये जनारामशताकुले। स राजाकर्मसु रतो दुष्टात्मा प्रियविग्रहः । स्वराष्ट्रमर्दयन् घोरं धर्मवाही ह्यधार्मिकः ।। स्थापयिष्यति मोहात्मा विजयं नाम धार्मिकम् ।
स ज्येष्ठं भ्रातरं साधं साकेते प्रथितं गुणैः ।। शालिशूक बुरे कर्मों में रत, दुर्जन और झगड़ालू था। वह धर्म की बातें करता था किन्तु अधार्मिक था। उसका ज्येष्ठ भ्राता विजय धर्मात्मा और गुणी था किन्तु शालिशूक ने उसे गद्दी से वंचित करके साकेत में अपना एक प्रादेशिक शासक नियुक्त कर दिया था। इससे ऐसा लगता है कि विजय और शालिशूक दोनों ही सम्प्रति के उत्तराधिकारी और सम्भवतः पुत्र थे । दोनों में ज्येष्ठ होने के कारण और गुणों के कारण भी मगध की गद्दी विजय को मिलनी थी पर हुआ कुछ और । शालिशूक के अनुचित आचरण का यह एक उदाहरण है । इसीलिए वह पुराणकार को अप्रिय है, बौद्ध या जैन होने के कारण नहीं । सौराष्ट्र के लोगों को बलात् जैन बनाने के कारण नहीं बल्कि प्रजा पर उत्पीड़न चलाने के कारण युगपुराण उसकी निन्दा करता है।
पुराणकार शालिशूक को इसलिए भी बुरा मानते हैं कि उसने राज्य अवैध रूप से पाया था । ध्र व का मत है कि सम्प्रति के जीवन-काल में ही दशरथ के बाद शालिशूक पाटलिपुत्र की गद्दी पर बैठ गया था। उनका यह मत दिव्यावदान पर टिका है । दिव्यावदान पालि-ग्रंथों और पुराणों से परवर्ती है अतः उसके कथन भी प्राचीनतर ग्रंथों से जहाँ बेमेल हैं वहाँ मान्य नहीं हो सकते। दिव्यावदान में अशोक को माता को ब्राह्मणकन्या बताना पालि-ग्रंथों के विरुद्ध होने से विद्वानों को अमान्य है। शालिशूक के सिंहासनारोहण के बारे में दिव्यावदान का साक्ष्य भी वैसा ही अप्रमाणिक है । पुराणों के अनुसार
तुलसी प्रज्ञा
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