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________________ सारी चर्चा का हार्द यह है कि उत्तरोत्तर उत्कृष्ट धार्मिक साधना में रहते हुए ही अप्रतिज्ञ होने का विधान है। काम भोगी, विलासी, विषयासक्त जीवन में अप्रतिज्ञ का विशेषण महज मजाक साबित होगा । यदि व्यक्ति अहिंसा, संयम, तपादि धर्म से विहिन है तो उसके अपडिण्णे होने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता, वह तो अप्रतिज्ञ की कक्षा में प्रवेश पाने के लिये सर्वथा अयोग्य ही है । तपस्वी संयमी व चारित्रवान् में ही अप्रतिज्ञ बनने की प्रात्रता व संभावना है न कि सम्यक पराक्रम से कतराने वाले में । ऐसा उच्चकोटिस्थ साधु ही सही माने में बिना किसी पूर्वाग्रह के समाधि व संयम यात्रा का विवेक पूर्वक निर्वाह करने के लिये और उनमें तेजस्विता लाने के लिये द्रव्य क्षेत्र काल भाव से जैसे भी शुद्ध कल्पनीय आहार धर्मोपकरण शय्यादि सहज में प्राप्त हो जाय उन्हें एषणा के दोषों को न लगाता हुआ विरक्त अनाशक्त व समभाव सेवा पर लेता है-यह अप्रतिज्ञता का उदाहरण है। बहुत से मुनि भगवन्त ऐसा करते हैं--काश हममें भी अनाग्रही बनने की अलबत्ता वैसी योग्यता हो। १२८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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