SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उतने ही अपवाद मार्ग है अतः हर कदम पर हमें अपने विवेक से काम लेना है-अनेकान्त स्वीकार करना पड़ता है। किसी एकान्त से व्यवहार नहीं चलता और जैसा कि ऊपर कह चुके हैं कोशों में प्रतिज्ञा शब्द का एक अर्थ आग्रह भी है और पडिण्णे शब्द का यही अर्थ यहाँ अपेक्षित है। हमें अपडिण्णे अर्थात् अनाग्रही-आग्रह से रहित होना है। हठ, रीसना, दुराग्रह या कदाग्रह क्या, हमें तो सत्य का भी आग्रह नहीं करना है। विनोबाजी ने कहा है-सत्य का आग्रह नहीं, सत्य का ग्रहण होना चाहिए। कहना न होगा कि आग्रह शब्द में कुछ परापेक्षा ध्वनित होती है --~-दूसरे में कुछ अपेक्षा का भावनिहित है। हमारी राय में अपडिण्णे का यह अर्थ बिलकुल सीधा-सादा है और लगभग उनसभी सूत्रों में इससे अर्थ संगति बैठ जाती है, जिनमें कि अपडिण्णे शब्द आया है। 'भगवान् बिना किसी आग्रह के जीवन यापन करते थे' इस वाक्य को हमसब आसानी से समझ सकते हैं। परन्तु साथ में हमें यह भी बहुत अच्छी तरह से समझ लेना है कि जो अजितेन्द्रिय है वह अनाग्रही नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रियों का वह दास विषयों के प्रवाह में बह जायेगा। अप्रतिज्ञ का वर्णन उच्छंखलता का नहीं अपितु जीवनमुक्त-कृत्कृत्य की निकट दशा का वर्णन है । जिस प्रकार प्रमादी व निम्न गुणस्थान वाले के शुक्लध्यान या इर्यापथिक क्रिया संभव नहीं है, ठीक उसी प्रकार अपडिण्ण भी उच्चस्तरीय साधक का ही लक्षण अथवा गुण है.--कषाय रहित वीतरागता की अपेक्षा रखता है। और यही स्पष्टीकरण आगम में सर्वप्रथम 'अपडिण्णे' शब्द का प्रयोग करने वाले 'अपडिण्णे दुहतो छित्तानियाई' सूत्र में कर दिया गया है (बार-बार देने की पद्धति नही है)= अत्रतिज्ञ राग और द्वेष दोनों से रहित हुआ निःसन्देह प्रगति करता है । ऐसे समभावी निरीह (मध्यस्थ) व्यक्ति में ही अपडिण्णे होने की योग्यता है, वही अप्रतिज्ञता का अधिकारी है, उसके लिये ही अप्रतिज्ञपना उपादेय है। जबकि अपरिपक्व साधक के लिये अप्रतिज्ञता में असंयम व प्रमाद (मौज) की स्थिति और अधिक मजबूत हो जाती है। यही कारण है कि उसके लिये भोगोपभोग, परिग्रह, आवश्यकताओं, वासनाओं तथा जीवनचर्या पर अंकुशरूपी समाचारी अनिवार्य है, हितकारी है क्योंकि भाव अप्रतिज्ञता के अभाव में बहुधा अविरति विषयासक्ति, मनमानी, अमर्यादायें व अनुशासन हीनता ही पनपती है-स्वयं ही धोखा खाता है-प्रगति के बजाय अधोगति होती है। असमाधि न हो तो छः छः महीने के उपवास, कड़ाके की सर्दी में भी नग्नावस्था में विचरण, उडद बाकुला सहित अभूतपूर्व अभिग्रह, घोर व्रत, प्रत्याख्यान आदि सभी तप निर्जरा के हेतु हैं । * नय किंचिअणुण्णायं पडिसिद्धं वा विजिणवरिंदेहिं; मोत्तुं मेहुणभावं न तं विणारागदोसेहिं । खण्ड १९, अंक २ १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy