SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सहना है और भरपूर शक्ति से सहना है और सहने की उस सीमा को आगे से आगे बढ़ाते रहने की साधना भी कर्त्तव्य है। निश्चय ही वे पुद्गलानन्दी शिथिलाचार के पोषक हैं जो प्रतिबद्धत्ता या कायक्लेश, अज्ञान तप के नाम पर व्रतादि की अवहेलना करते हैं। शराब पीने वाला सोचता होगा कि पीने का व्रत लेने वाला बंधनों से जकड़ा हुआ है। किन्तु यह तो 'उल्टा चोर कोतवाल को दण्डे' बाली उक्ति चरितार्थ हुई। अरे भाई ! शराब से बँधा हुआ तो वह शराबी है जिसे नित उठ शराब चाहिएन पीने वाला तो उससे मुक्त है । इसी प्रकार देशावगासिक की भाँति अभिग्रह हमारे व्रतों को और अधिक पुष्ट करते हैं, छूट की सीमाओं को और संकुचित करते हैं । व्रत प्रत्याख्यानादि रूपी मुक्ति व त्याग के इस क्रम को अज्ञानी ही प्रतिबद्धता की संज्ञा दे सकते हैं । आचाराङ्ग प्रथम स्कन्ध अध्याय ९ उद्देशक २ गाथा २८९९१, २७५ में बड़ा सुन्दर व्यंग है उन पाखण्डियों पर जो सहजता के नाम पर विषयों का भोग करते रहते हैं । पर जब भयंकर ठंड पड़ती है तो ये लोग उस प्राकृतिक सर्दी को सहज रूप से सहने में कतराते हैं और ढके हुए भूगृहों में घुस जाते हैं, आग से तपते हैं, गूदड़े ओढ़ लेते हैं, अङ्गो को सिकोड़ लेते हैं। उस समय उनका सहयोग कहाँ चला जाता है ? जबकि भगवान् का आचरण इनसे सर्वथा विपरीत है। वे ऐसी सर्दी में भी बाहर खुले में ही रहते हैं, भुजाएं, फैलाकर चलते हैं, सर्दी को समभाव से सहते हैं और इसीतरह नींद, भूख, प्यास व अन्य वेगों को भी जीतने की कोशिश करते रहते अप्रतिज्ञता की शाब्दिक ओट में खुल्लखुला पशुजीवन बिताने की छूट अपनाने वालों से हमारा नम्र निवेदन है कि भाषा व्यवहार है, विचारों के आदानप्रदान का माध्यम मात्र है-उसकी अपनी सीमायें हैं। और यही कारण है कि वाद-विवाद में हम प्रत्येक स्थापना के पूर्व स्यात् पद जोड़ ही देते हैं। अंग्रेजी में एक सार गभित कहावत है ---Law is not an ass to rideupon । बुद्धिमान व्यक्ति शब्दों का आलम्बन लेकर उस सहारे से आगम का मर्म व भावना को समझने का प्रयन्न करते हैं। देशा विरत जीवन के किञ्चित् अनुभव के आधार पर अनुरोध है कि अपडिण्णे शब्द की समस्या के निराकरण हेतु आचाराङ्ग के एक प्रमुख औपदेशिक सूत्र "तत्थख लु भगवता परिण्णा पवेदिता" की मदद ली जावे । 'पडिण्णा' शब्द से मिलता जुलता ही यह ‘परिण्णा' भी प्राकृत का एक जैन पारिभाषिक शब्द है और उस सूत्र का अर्थ है.---'निश्चय ही भगवान द्वारा वहाँ (क्रिया में) परिज्ञा (ज्ञानमय त्याग= विवेक) कही गई है' । क्रिया से पूर्ण निवृति नहीं कही है, वह न तो संभव है (अ इ उ ऋ ल उच्चारण जितना मुक्ति-पूर्व का समय छोड़कर) और न हमारे लिये उपादेय, क्योंकि क्रिया से ही मोक्ष होता है। जितने उत्सर्ग मार्ग हैं तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy