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________________ भोजन कर लेते थे। तप समाधि को दृष्टिगत रखने वाले वे भगवान् भोजन ध्यान आसनादि के मामलों में प्रतिज्ञाओं से मुक्त रहते है। वृत्तिकर ने 'अण्णगिलायं' का जो 'ग्लान अन्न' और 'राओवरातं' (रात्रोपरात्रं) का जो 'रातदिन' अर्थ किया है वह उचित प्रतीत नहीं होता। श्री अभयदेवसूरि ने भगवती की वृत्ति में इसी पद की व्याख्या निम्न प्रकार की (यद्यपि शीलांकाचार्य का अर्थ उनके सामने था)- अन्नं बिना ग्लायति-ग्लानो भवति इति अन्नग्लायकः। प्रत्यग्नकूरादि निष्पत्ति यावद् बुभुक्षातुरतया प्रतीक्षितुम अशक्नुवन य पर्युषित कूरादि प्रातरेव भुङ क्ते, कूरकड्डुक प्राय इत्यर्थः । चूर्णिकारेणतु निः निस्पृहत्वात् सीयकरभोइ अंतता हारोतिव्याख्यातम् । यदि कहो कि यह 'अपडिण्णो' तो भगवान की साधना अवस्था का वर्णन है और इस कारण अनुकरणीय नहीं भी हो सकता है तो प्रतिवाद यह है कि उपधानश्रुत के अलावा भी अपडिण्णे शब्द आगमों में कई स्थलों पर प्रयुक्त हुआ हैं । और कई व्याख्याकारों ने आचाराङ्ग प्रथम स्कन्ध अध्याय ९, गाथा २७६, २९२, ३०६ और ३२३ का अनुवाद यह भी किया है कि बहुत से मुनि भगवन्त भी इसी प्रकार बिना प्रतिज्ञा के विचरते हैं । इसी प्रसंग में वृत्तिकार ने एक प्राचीन प्राकृत गाथा को उद्धत किया है जिसका अभिप्राय है कि धर्म में निश्चयपूर्वक कोई विधि निषेध नहीं है। (मैथन विषमता में ही संभव है अतः उसका निषेध तो स्वतः ही हो जाता है । ) *इसप्रकार जैसा कि सदैव किया जाता है, व्याख्याकारों ने स्याद्वाद की शरण ली है। दरअसल में वात यह है कि जब शास्त्रों में तप का विधान ही वैकल्पिक है-अनिवार्य नहीं है तो उससे फलित होता है कि यदि अनशन, आसन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि तप में अकुलता व्याकुलता या विचलितपना हो रहा हो, शारीरिक वेदना असह्य हो जाय तो उस असमाधि, अशान्ति व आर्त स्थिति को मिटादेना उपादेय है। चौरासी लाख जीव योनियों में भटकते हुए बड़े सौभाग्य से मनुष्य भव प्राप्त हुआ है सो जब तक शरीर धर्म-साधना व निर्जरा में सहायक व सक्रिय रह सकता है, तब तक उसे हारना नहीं है, सशक्त या नष्ट नहीं करना है। तर्क ठीक है पर साथ में आचाराङ्ग सूत्र प्रथम स्कन्ध अध्याय ८ के पांचवें उद्देशक का यह प्रावधान भी दृष्टव्य है कि जो प्रतिज्ञायें की जा चुकी हैं उन्हें निभाते हुए यदि मरण भी हो जाय तो वह पण्डित मरण है। यद्यपि आगमकार "रघुकुलरीति सदा चली आई, प्राण जाय पर वचन न जाई" इस तुलसीकृत चौपाई पर्यन्त तो नहीं गये हैं, तो भी इतना अवश्य कहा है कि प्राण देने वाला गल्ती पर नहीं है। जो भी हो, पर इस सबका तात्पर्य निःसन्देह यह कदापि नहीं है कि सर्दी, गर्मी, भूख-प्यास निद्रा आदि वेदों के परीषहों को ही सहना है । जरूर खण्ड १९, अंक २ १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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