________________
मुनिमधुकरजी : "भगवान् किसी विधिविधान में पूर्वाग्रह मे निदान या
हठाग्रह पूर्वक बंधकर नहीं चलते थे । वे सापेक्ष अनेकान्तवादी थे... ध्यान आदि में विघ्न न आये तथा समभाव साधना की दृष्टि से समय पर जैसा भी बासी ठण्डा भोजन मिल जाता । बिना स्वाद लिये उसका सेवन कर लेते थे । आचाराङ्ग पृष्ठ-२७६, ३३७]
उपर्युक्त व्याख्या साहित्य में 'अपडिण्णे का अर्थ तो आहार, विहार; वस्त्र, शय्यादि एषणाओं, निद्रा, शरीर संस्कार इत्यादि में प्रतिज्ञा के बिना रहना' यही किया है किन्तु सभी व्याख्याचार्यों के ध्यान में यह बात तो थी ही कि अपडिण्णे के सिद्धांत की प्रचलित जैनाचार (व्रत प्रत्याख्यान, अभिग्रह, विरति, यमनियम, प्रतिमा, त्यागादि) से संगति बिठाना इतना सरल नहीं है । वृत्तिकार कहते हैं कि प्रतिज्ञायें बहुतेक कषायवश की जाती है इसलिए अपडिण्णे का विधान किया गया है बाकी रागद्वेष रहित प्रतिज्ञा यदि की जाय तो वह गुणवती है । फिर वे कहते हैं कि सिंहकेशरी लड्डू भिक्षा में लूगा यह प्रतिज्ञा रसासक्ति की द्योतक होने से हेय है परन्तु उड़द के बाकुले ही खाऊँगा यह संकल्प किया जा सकता है । अवश्य उन्हें भी यहाँ खेंचतान लगी होगी इसलिए वे प्रतिज्ञा शब्द का दूसरा अर्थ करते हैं, 'निदान' तथा इहलौकिक व पारलौकिक निदान करने वाले को अप्रतिज्ञ कहा गया है। लेकिन हमारी राय में निदान व प्रतिज्ञा ये दोनों शब्द एकार्थक नहीं हैं। निदान में फलकामना की प्रधानता है, याचना या चाहना का दृष्टिकोण रहता है तथा तपादि साधना के बदले में अमुक उपलब्धि हो ऐसी सौदेबाजी की भावना होती है । सूत्रकृताङ्ग के दसवें अध्याय की पहली गाथा में भी निदान को प्रतिज्ञा से भिन्न माना गया है अन्यथा अप्रतिज्ञ और अनिदानी इन दोनों का अलग उल्लेख नहीं होता। आचाराङ्ग ४-३-१४२ में अनिदानी की 'जे निव्वुडे पावेहि कम्मेहिं अणिदाणा ते वियाहिता' ऐसी परिभाषा की गई है। चुणिकार ने भी निदान हेतु व निमित्त इन तीनों को पर्यायवाची बताया है तथा निदान का अर्थ आश्रव और बंधन किया है एवं आहार उपधि या पूजा के निमित्त तप न करने की भलामणदी है । 'परदुख' का निदान तो सर्वत्र वर्जित ही है। निदान वस्तुत: शल्य है क्योंकि धर्म क्रिया का फल जिस साधक का हेतु है उसके आचार समाधि हो नहीं सकती [दसकालिक ९ (iv) ११]
पर इससे भी अप्रतिज्ञ का अर्थ स्पष्ट हुआ हो या समस्या का हल हुआ हो ऐसा लगता नहीं है। उदाहरण स्वरूप आचाराङ्ग सूत्र प्रथम स्कन्ध अध्याय ९ उद्देसकचार की गथा ३१२-३ व ३२० को ही लीजिये-कहते हैं कि भगवान् दो महिनों से अधिक और कभी छः महिनों तक बिना पानी रहे, रात-बेरात अप्रतिज्ञ रहते थे, कभी अन्न के बिना ग्लान हो जाते । तब
१२४
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org