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('यह असत्य भी मेरे द्वारा समर्थन करने योग्य है' ऐसी प्रतिज्ञा जिसके नहीं होती है वह अप्रतिज्ञ=रागद्वेष रहित साधु उसके द्वारा)
७-१९, ३७० सेठे मुणिणं अपडिण्णमाह ।
चूणि-श्रेष्ठो मुनिनां तु अप्रतिज्ञः । नास्य इहलोक परलोकं वा प्रति प्रतिज्ञा विद्यत इति अप्रतिज्ञः ।
(जबकि मुनियों में अप्रतिज्ञ श्रेष्ठ होता हैं। इसलोक या परलोक के प्रति जिसके प्रतिज्ञा नहीं होती है वह अप्रतिज्ञ कहलाता है)
वृत्ति --- नास्य प्रतिज्ञा इहलोक परलोकांक्षसिनी विद्यते इति अप्रतिज्ञः।
(लौकिक किंवा पारलौकिक आकांक्षारूपी प्रतिज्ञा जिसके नहीं है वह अप्रतिज्ञ है)
१०-११४७३ अपडिण्णे भिक्खू तु समाहिपत्ते अणियाण भूतेसु परिव्वएज्जा ।।१।।
चणि-कः समाधिप्राप्तः ? य अप्रतिज्ञः इह परलोकेषु कामेषु अप्रतिज्ञः अच्छित इत्यर्थ, अद्विष्टोवा । अणि दाणभूतो-- अनाश्रवभूत अथवा निदाबन्धने, ज्ञानादिनि अथवा निदान हेतुनिमित्तम् इति अनर्थान्तरम; न कस्यचित्भि दु:ख निदान भूतो परिव्वएजा ।
(कौन समाधि को प्राप्त है ? जो अप्रतिज्ञ है = इसलोक और परलोक के काम भोगों में अप्रतिज्ञ अर्थात् उनमें मूर्छा रहित । अथवा द्वष रहित । अनिदान भूत आश्रव बिनाका; अथवा 'निदा' बंधन के अर्थ में (अनिदा=) ज्ञान आदि । अथवा निदानहेतु व निमित्त पर्यायवाची हैं। किसी के लिए भी दुःख का कारण भूत (हेतु) न हो इसप्रकार वर्तन करे)।
वत्ति-न विद्यते ऐहिकामुष्मिक रूपा प्रतिज्ञा=आकाङक्षा । तपोऽनुष्ठानं कुर्वतो यस्या साव प्रतिज्ञो। भिक्षणशीलो भिक्षुः तृविशेषणे भावभिक्षुः असावेव परमार्थत: साधुः धर्म धर्मसमाधि च प्राप्तोऽसावेवेति ।
(तप आराधना करते हुवे जिसके इसलोक या परलोक सम्बन्धी कोई आकांक्षा रूपी प्रतिज्ञा नहीं है वह अप्रतिज्ञ [भिक्षा जिसकी वृति है वह भिक्ष होता है, 'तु' शब्द विशेषण के रूप में है] भाव से भी भिक्षु है, वही वास्तव में साधु है और वही धर्म और धर्मसमाधि को प्राप्त है।
१५-२०१६२६ कुतोकताइ मेघावी उप्पज्जति तहागता, तहागताय अपडिण्णा चक्खूलोगस्सऽणुत्तरा ॥२०॥
चणि -- अपडिण्णा अप्रतिज्ञा: अनाशंसिज इतिअर्थ । [अप्रतिज्ञ अर्थात् आशंसा (कामनाओं) से रहित]
वृत्ति-न विद्यते प्रतिज्ञा-दिवानबंधनरूपा येषां तेऽप्रतिज्ञा अनिदाना निराशंसा ।
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