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९-१, २७६,२९२,३०६ ३२३ एस विधि अणुक्कंतो माहणेण मतीमता, बहुसो अपडिणेण्ण भगवया एवं रीयति ।। त्ति बेमि ।
चर्णि-शरीर सक्कार प्रति अपडिण्णण । अहवा णोइहलोगट्टयाए तत्वमहिद्विस्सामि इति अपडिण्णो पाठान्तर बहुसो अपडिण्णेण भगवया एवं रीयति (रीयंति) बहुसोइति अणेगसी अपडिण्णो भणितो भगवता रीयमायेण रीयत्ताएवा।
(शरीर संस्कार के प्रति अप्रतिज्ञ । अथवा तप की आराधना इस लोक के लिये नहीं करूँगा इस कारण अप्रतिज्ञ। [पाठान्तर] =अनेकों प्रकार से अप्रतिज्ञ भगवान् द्वारा विचरण करते हुए या विचरण किया गया)
वृत्ति----बहुश: अप्रतिज्ञेन अनिदानेन । (अनेकों प्रकार के निदानों से रहित)
९-२।२८१ णिपि णो पगामए सेवइया भगवं उढाए, जग्गावतीय अत्पाणं, ईसिसाईय अपडिण्णे ।
चूणि-निद्रा सुहंप्रति अपडिण्णे । यदुक्तं भवति अणाभिलासी।
(निद्रासुख के प्रति अप्रतिज्ञ । कहने का तात्पर्य यह कि अभिलाषा से रहित)
वृत्तियत्रापि ईषत् शय्यासीत् तत्रपि अप्रतिज्ञ=प्रतिज्ञा रहितः, न तत्रापि स्वापाभ्युपगमपूर्वकं शायित इत्यर्थः ।
(जहाँ पर अनुकूल शप्या भी होती वहाँ पर भी अप्रतिज्ञ-प्रतिज्ञा रहित अर्थात् वहाँ पर भी सोने के इरादे से कभी शयन नहीं किया)
८-२।२८७ सजणे हिं तत्थपुच्छिसु एगचरा विएगदारातो अव्वाहिते कसाइत्थापेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ॥११।।
चूर्णि---इह परत्थय अपडिण्णे । तं जहा णो इहलोगट्ठपाए तवं अणचिट्ठिस्सामि, विसय सुहेसु च अपडिण्णो सव्व पम्पदिसुवा ।
(इसलोक और परलोक के लिये अप्रतिज्ञ, जैसे न इसलोक के लिये तप का अनुष्ठान करूँगा' और विषय सुखों में या सब प्रकार के प्रमादों में अप्रतिज्ञ)
वृत्ति...न अस्य वैर निर्यातन प्रतिज्ञा विद्यत इति अप्रतिज्ञ । (वैर का बदला लेने की प्रतिज्ञा जिसके नहीं होती है वह अप्रतिज्ञ) ९-२।२९१ तसिं भगवं अपडिण्णे,
अधेविगड़े अधियासते दविए ॥१५॥ चूणि----तहिं काले भावेति अपडिण्णे वसहिं पडुच्चणमए णिवासावसही पत्थेयव्वा।
(उसमें [बसती के प्रति] काल और भाव से अप्रतिज्ञ । बसती की मुझे बिना हवा वाली वसती की यचना नहीं करनी है।)
खण्ड १९, अंक २
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