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________________ से-बाहबलि द्वारा प्रतिज्ञा की गई..." । तथा (३) मायाके उदय से- मल्लिस्वामी के जीव द्वारा जिस प्रकार अन्य यतियों को धोखा होता है, उस तरह प्रत्या. ख्यान प्रतिज्ञा की गई। तथा (४) लोभ के उदय से---सही तत्त्व से अनभिज्ञ, वर्तमान पर ही दृष्टि रखने वाले नाममात्र के यति मासक्षपण आदि करने वाले भी प्रतिज्ञा करते हैं [लोभवश] या फिर अप्रतिज्ञ=निदान रहित, वसुदेव की भाँति संयम को आराधना करके निदान नहीं करता है। अथवा गोचरी आदि में गया हुआ ऐसीप्रतिज्ञा नहीं करता है कि मेरे ही, ऐसा आहार मादि होगा' वह अप्रतिज्ञ है। अथवा तीर्थंकर प्रणीत आगम के स्याद्वाद प्रधान वाला होने के कारण एक पक्ष को ही पकड़े रखना प्रतिज्ञा हुई और उससे जो रहित है वह अप्रतिज्ञ ; क्योंकि मैथुन विषय को छोड़कर दूसरी कोई भी एकदम निश्चयात्मक प्रतिज्ञा कर्तव्य नहीं है । "" 'इस प्रकार यदि अप्रतिज्ञ है तबतो इस सूत्र से यह फलित होता है कि किसी के द्वारा कुछ भी प्रतिज्ञा नहीं की जानी चाहिए, जब कि आगम में अनेक प्रकार के अभिग्रह विशेषों का प्रतिपादन (विधान) किया गया है और इससे तो पूर्वापर (आपस) में विरोध जैसा प्रतीत होता है' अतः कहते राग से या द्वष से जो हो उस प्रतिज्ञा को छोड़कर बाकी की (प्रतिज्ञा) तो ज्ञानदर्शनचारित्र नामक मोक्ष-मार्ग में या संयम-साधना में अथवा भिक्षा आदि प्रयोजनों में निश्चय ही या निर्धारित रूप से प्रगति कराती ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि रागद्वेष रहित प्रतिज्ञा गुणकारी है जबकि (व्यत्यये व्यत्ययं == रागद्वेष युक्त प्रतिज्ञा हेय है । २-११२० (२७३) मातण्णे असण पाणस्स णाणुगिद्धे रसेसु अपडिण्णे । चणि--ण तस्स एवं पडिण्णा आसी जहामते एवं विहा भिका भोज्जाण वा भोइयव्वा इति । तत्र अभिग्गह पइण्णा आसी जहा कुम्मासा मए भोतव्वाइति । (उनके इस प्रकार की प्रतिज्ञा नहीं थी कि मेरे द्वारा इस प्रकार की भिक्षा खाई जावेगी या ऐसी भिक्षा नहीं खाई जावेगी। उनमें अभिग्रह परिज्ञा थी जैसे कि कुल्थी व उड़द मुझं खाने हैं) वृत्ति-. रसेसु एव ग्रहणं प्रति अप्रतिज्ञः यथा मयाऽद्य सिंह केशरा मोदका एव ग्राह्या इत्येवं रूप प्रतिज्ञा रहितः; अन्यत्र तु कुल्माषादौ सप्रतिज्ञा एव । ('रसमय का ही ग्रहण' इस अपेक्षा से अप्रतिज्ञा वाले जैसे मेरे द्वारा आज केवल सिंह केशरीलडडू ही लिये जावेंगे, इस प्रकार की प्रतिज्ञा से रहित थे, जबकि कुल्थी उड़दादि दूसरों के बारे में तो प्रतिज्ञा वाले थे ही। ११८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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