SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (अपडिण्णो-जैसे मैं अकेला उपभोग करूँगा या गुरु आदि दूसरे भी खावें या देखें-इस विचार से ग्रहण करता है, लाभ में प्रतिज्ञा से रहित इससे अप्रतिज्ञा है। अथवा अनियत कुलों से लेता है; जो यह विचार करके नहीं जाता है कि अमुक कुलों में जा रहा हूँ, वह अप्रतिज्ञ है। और जो भी उपाधि या उपकरण हैं वे भी एकमात्र ज्ञानादि के लिए ग्रहण करता है""राग और द्वेष दोनों को छोड़ता हुआ; अनेषणोय (अकल्पनीय) राग-द्वेष से होलिया या खाया जाता है इसलिए उन दोनों को त्यागकर, उनका छेदन करता हुआ निश्चय ही प्रगति करता है । अथवा दोनों प्रकार के दोषों को न लगता हुआ--खाने में इंगाल धूम आदि मंडल दोषों और उद्गम उत्पादना व एषणा ४२ दोष) वृत्ति-न अस्य प्रतिज्ञा विद्यते इति अप्रतिज्ञः । प्रतिज्ञा च कषायोदयता विरस्ति तय था क्रोधोदयात् - स्कन्दाचार्येण स्वशिष्य यन्त्रपीलन व्यतिकरमालोक्य सबलवाहन राजधानी समन्वित पुरोहितोपरि विनाश प्रतिज्ञाऽकारि । तथा मानोदयात्-बाहुबलिना प्रतिज्ञाव्यधायि । तथा मायोदयात् -- मल्लिस्वामि जीवेन यथा परयति विप्रलम्भनं भवंति तथा प्रत्याख्यानं परिज्ञाजगृहे। लोभोदयात्-~~-तथा अविदित परमार्था साम्प्रतक्षिणः यत्याभासा मासक्षपणादिकाऽपि प्रतिज्ञा कुर्वन्ते । ____ अथवा अप्रतिज्ञो अनिदानी वसुदेववत् संयमानुष्ठानं कुर्वन् निदानं न करोति । अथवा गौचरादौ: प्रविष्टः सनाहारदिकं मम् एव एतत् भविष्यति इति एवं प्रतिज्ञा न करोति इति अप्रतिज्ञः । यदिवा स्याद्वाद प्रधान्त्वम् मौनीन्द्रा गमस्यैक पक्षावधारणं प्रतिज्ञा तत्रहित: अप्रतिज्ञः । तथाहि मैथुन विषयं विहाय अन्यत्र न क्वचित् नियमवतिः प्रतिज्ञाविधेया। ___ एवं वह्य प्रतिज्ञ इत्यनेन सूत्रेणेदमापन्न-नक्वचित्केनचित्प्रतिज्ञा विधेय, प्रतिपादिताश्चागमे नानाविधा अभिग्र विशेषा: ततश्च पूर्वोत्तर व्यापतिः इव लक्ष्यतेत्यताह ---दुहओ छेता जियाइ (द्विधेति) रागेण द्वेषेण वा प्रनिज्ञा तां छित्वा निश्चयेन नियतं वायाति नियाति ज्ञानदर्शनचारित्राख्ये मोक्षमार्गे संयमानुष्टानेबा भिक्षाद्यर्थवा । एत कंभवति--रागद्वेषौ धित्वा प्रतिज्ञा गुणवती व्यत्यये व्यत्ययइति । जिसके प्रतिज्ञा नहीं होती है वह अप्रतिज्ञ है और प्रतिज्ञा कषायों के उदय से जन्म लेती है। जैसे कि (१) क्रोध के उदय से अपने शिष्य को घाणी में पिरे जाने की दु:खद घटना को देखकर स्कन्दाचार्यद्वारा सेना वाहन राजधानी समेत पुरोहित के ऊपर विनाश की प्रतिज्ञा की गई। तथा (२) मान के उदय खण्ड १९, अंक २ ११७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy