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में अप्रतिज्ञता किस प्रकार समाई जा सकती है, यही हमारी चर्चा की क्षेत्र सीमा होगी।
___ यदि प्रश्न किया जाय कि विगत कई शताब्दियों में रचे गए ढेर सारे आगमिक व्याख्या साहित्य में क्या इसका समाधान नहीं है ? तो जैसा कि हम आगे देखेंगे, उत्तर शायद नकारात्मक ही होगा। इसके अलावा अब जमाना ओछी, किन्तु ताकिक बुद्धि वालों का शुरु हो चुका है और इस विरोधाभास की ओट में प्रचारकों को इन्द्रिय विषयों की खुली छूट द्वारा सम्यग चारित्र व तप की जड़े काटने में सफलता मिल रही है। क्योंकि शिथिलाचारियों को संयम कठिन पड़ता है । आत्मज्ञान के सब्जबाग दिखाकर संघ के बहुत बड़े भाग को अविरति, प्रमाद, अक्रियावाद, उछ खलता व आचारहीनता की ओर आकर्षित किया जा रहा है और हम इस खतरे की उपेक्षा नहीं कर सकते । यद्यपि उपरोक्त विवाद सदा से रहता आया है तो भी वर्तमान में बराबर के बौद्धिक धरातल पर इससे संघर्ष करने की नई आवश्यकताओं का उदय हुआ है। एक नहीं अनेक संगोष्ठियों में समन्वय खोजने का सिलसिला जारी रखना पड़ेगा-शब्दार्थ, पारिभाषिक रूढार्थ, गुरु-परंपरा से प्राप्तार्थ और इससे भी आगे बढ़ते हुए केवल सूत्र की भाषा में ही नहीं उलभते हुए, आगमकार के कहने का सही तात्पर्य क्या है, उस अर्थागम तक पहुंचने का प्रयास करना पड़ेगा।
इस वास्ते सर्वप्रथम जहाँ-जहाँ अपडिण्णे शब्द का प्रयोग हुआ है उन आगमसूत्रों का और उनके बारे में प्राचीन और अर्वाचीन व्याख्याकारों के मन्तव्यों का संकलन प्रस्तुत करना उपयुक्त होगा तथा श्रोता/पाठकों से निवेदन है कि जो सूत्र छूट गए हैं उन्हें वक्ता को सूचित करने का कष्ट करावें ।
आचाराङ्ग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्धः--
२-५८८ व ८-३।२१० से भिक्खूकालण्णे 'कालेणुढाई अपडिण्णे [पाठान्तर अप्पडिण्णे] दुहतोछित्ता नियाई ।
चूणि--अपडिण्णो णाम अहं एगो उव भुजेहामि अण्णेवि एतं गुरुमानी पाहंतिवा, एयाए परिणाए गिण्हइ, ण आयवडिणो याए तेण अप्पडिणो । अहवा अपडिण्णाये षुकुलेषु गिण्हइ, ण यएतं परिणं करित्ता गच्छति जहा अमुगकुलाणि गच्छिहामि हो अपडिण्णो। जोविकरणो एगागी सोऽविनाणादीणं अट्टाए गेण्हन्ति, "दुहओ चित्ता-रागदोसं च अणेसणिज्जं रागद्दोसेहिं घिप्पइ भुंजन्ति वा तेण ते दोऽविछित्त्वात्रोडिता छित्तुंणियतं जाति णियति । अहवा दुहतो छेत्ता भोयणे सइंगालं सधूम उग्गम कोडि विसोधि कोडि दो सेव्या णियतं जाति णियाति ।
तुलसी प्रज्ञा
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