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अपडिण्णे
0 जौहरीमल पारख
जैनागमों में तीर्थंकरों व स्थविरों के विशेषण रूप में अपडिण्णे शब्द अनेक बार सोद्देश्य व सप्रयोजन प्रयुक्त हुआ है। आगमों के सिरमौर अकेले आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में पन्द्रह बार इसका प्रयोग हुआ है और वह भी मुख्यतः भगवान महावीर के साधना जीवन की डायरी स्वरूप उपधानश्रुत जैसे महत्त्वपूर्ण अध्ययन में। वहाँ जो कुछ भी भगवान का पूर्व इतिवृत्त बताया गया है, वह साक्षात् भगवान् के मुंह से गणधर श्री सुधर्मा स्वामी ने स्वयं सुना है, उसकी बिना किसी पेल-सेल के शब्दसः सही रिपोर्ट है । "अहा सुतं........वदिस्सामि....त्ति बेमि ।" इतना ही नहीं, द्वितीय अंग सूत्रकृताङ्ग के वीर स्तुति नामक प्रसिद्ध अध्ययन की १९वीं गाथा में तो यहाँ तक गाया गया है कि 'सेठे मुणीणं अपडिण्णमाहु' = (श्रेष्ठो मुनीनां तु अप्रतिज्ञः-चूर्णिकार) सभी विद्वानों ने एक मत से प्राकृत भाषा के इस सरल शब्द अपडिण्णे की संस्कृत छाया 'अप्रतिज्ञ' 'अर्थात् प्रतिज्ञा से रहित''प्रतिज्ञा से मुक्त' की है। प्रतिज्ञा के न्यायिक अर्थ प्रस्थापना या पक्षोक्ति को एक ओर रख दें तो कोशों में इस शब्द के निम्न अर्थ व पर्यायवाची प्राप्त होते हैं-सौगन्ध, शपथ, कसम, प्रण, वचन, वादा, दृढोक्ति, आग्रह, संकल्प, अङ्गीकार, घोषणा आदि जिनके बारे में सामान्य बोलचाल में भी कोई विशेष गैर समझ,भ्रम या भ्रान्ति नहीं है ।
लेकिन आज जैन श्रुति संगोष्ठि में इस शाब्दिक प्रकरण को छेड़ने का प्रसङ्ग निम्न प्रकार खड़ा हआ है कि एक ओर तो अपडिण्णे की यह महिम है तो दूसरी ओर व्रत (वय)प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) प्रतिमा (पडिमा) अभिग्रह (अभिग्गह) विरति, यमनियम व त्याग आदि शब्दों का समूह है, जिस पर सम्यग् चारित्र व तप की विशाल इमारत खड़ी है । इस विशाल इमारत में यह अपडिण्णे रूपी आचारोपदेश भी आत्मसात हो जाय, बस यही समस्या लेकर मैं उपस्थित हुआ हूं। हमारे इस शास्त्रार्थ (exercise) का उद्देश्य सैकड़ों हजारों वर्षों की प्राचीनता वाले पारंपरिक धर्म के मूलस्वरूप का मूल्याङ्कन या परीक्षण करना नहीं है बल्कि वेद से प्रचलित इस बहुमुखी ढांचे
बण्ड १९, अंक २
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