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एवं मोतियों के समान लावण्य-युक्त है । उसका रूप नवीन -जात्य सुवर्ण के समान है, अक्षत यौवना है। उसके नेत्रों में कर्णपर्यन्त व्यापकता एवं उभयकपोलों की कोमलता ही शोषण, मोहन, मादन, तापना और मारण रूप कामदेव के पांच बाणों का कार्य कर देती है ।" कामदेव भी उसके दासत्व के लिए लालायित है ।" जंघाओं का विस्तार इतना है कि करधनी अपर्याप्त पड़ जाती है, स्तनों की ऊंचाई इतनी अधिक है कि नायिका अपनी नाभि को नहीं देख सकती । आंखों की विशालता के कारण कर्णोत्पल अनावश्यक प्रतीत होते हैं । मुख इतना सुन्दर है कि मानों पूर्णिमा दो चन्द्रमा वाली हो गयी है
तहा अ मुहमुज्जलं दुससिणी जहा पुण्णिमा ।। "
द्वितीय जवनिकान्तर में अनेक स्थलों पर उसके अंग-लावण्य का निरूपण है । तिर्यक् कटाक्षवाली, स्तन, त्रिवली, स्तनालिङ्गित वेणी और लता के समान कृश शरीर - श्री सम्पन्ना वह नायिका सभासदों के नेत्रों के लिए लावण्य की विस्तृत कल्लोलिनी, लीलाविभ्रम और हास्य की वास नगरी, परम सौभाग्यवती, नेत्र रूप कमलों की वापी, और श्रृंगार संजीवनी कुरङ्गाक्षी कामिनी हठात् सबके हृदय में प्रवेश कर जाती है । वह जिन्हें एक बार अपने चंचल कटाक्षों से देख लेती है, वे निश्चय ही कामदेव, चन्द्रमा, मधु और कोयल के पंचमराग से मृत्यु को प्राप्त होते हैं, परन्तु यदि किसी पर उसकी सम्पूर्ण दृष्टि पड़ गयी तो वह व्यक्ति निश्चय ही तिलाञ्जलि दान योग्य हो जाता है
जेसुं पुणो णिवडिआ साला विदिट्ठी १२ तिलजलंजलिदाणजोग्गा ॥
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विभूषण - विभूषिता - जो प्रकृति-सुन्दर होता है, विभूषणों के संयोग से उसके सौन्दर्य में चार चांद लग जाता है । सरस धवल आंखों में कज्जल, विशालस्तनी के गले में हार, एवं चक्राकार रमणस्थल पर कांचीदाम, अनिर्वचनीय शोभा को प्राप्त होते हैं । द्वितीय जवनिकांतर में क० मं० का विभूषण युक्त सौंदर्य विस्तार से निरूपित है । मण्डिद, टिक्किद भूषित और संतुष्ट कर्पूरमंजरी सोने की गुड़िया (२, १२) भौरों से युक्त कमल ( २.१३) फहराते पत्रों वाले कदली स्तम्भ ( २१४ ) कंचन शिला पर नृत्यमान मयूर ( २.१५ ) विपरीत मदन तूणीर (२.१६) तारानिकरों से युक्त मुखचन्द (२१७) कामदेव के बाण (२.१८) नवकमल ( २.१९) एवं चन्द्र बिंब के सारंग ( २.२० ) के समान सुशोभित हो रही है । अन्यत्र भी अनेक स्थलों पर विभूषण युक्त सौंदर्य का वर्णन मिलता है ।
दोलारूढ़ा – हिंदोलन पर भूलती हुई क० मं० अत्यन्त प्रिय लग रही है । विदूषक हिंदोलनारूढ़ नायिका को पूर्णिमा का चंद्रमा कहता है : भो दीसदु पुण्णिमाचंदो" राजा इस अवस्था का सुंदर चित्रण करता है । क० मं० का
तुलसी प्रज्ञा
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