________________
कुछ विद्वानों की दृष्टि में सौन्दर्य उभयगत है । वे कहते हैं कि 'रूप रिभावनहार यह वे नयना रिझवार' अर्थात् तुम्हारा सौन्दर्य तो रिझानेवाला है ही पर उस प्रेमी की आंखें भी कम नहीं है जो रूप पर रिझना जानती हैं । रूप को समझने के लिए दृष्टि चाहिए। वह दृष्टि सरस हृदय और सुसंस्कृत मन से प्राप्त हो सकती है । शाकुन्तल में सानुमती विदूषक को कहती है । " अनभिज्ञ खलु ईदृशस्य रूपस्य मोधदृष्टिरयंजन : ४० अर्थात् यह मूर्ख शकुंतला के सौन्दर्य को क्या समझे क्योंकि इसकी आंखें ही बेकार हैं । अत्यन्त उच्चकोटि का सौन्दर्य आंखों को तो चौंधिया ही देगा, जब उसके पीछे पारखी मन न हो ।
कवि राजशेखर का दृष्टिकोण उभयगत है । क० मं० को देखकर राजा ही अनुरक्त होता है क्योंकि उसके पास सौन्दर्य पारखी आंखों के साथ उसका रसिक मन भी विद्यमान है, परन्तु विदूषक पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता
अम्हारिस उण जणो ण कामस्स बाहणिज्जो ण तावस्स सोसणिज्जो "
१४१
राजा वस्तु की निसर्ग रमणीयता के साथ व्यक्तिगत रुचि को भी आवश्यक मानता है
रुचिस्स अत्थि सरिसं पुणु माणुसस्स | 2
उस सुस्था नितम्बस्थली कर्पूरमंजरी के रूप का आस्वादन तो कोई चंडपाल जैसा रसिक मनवाला व्यक्ति ही कर सकता है ।
ललित और उदात्त -- ललित और उदात्त का मिश्रण पूर्ण सौन्दर्य है । भागवतकार के कृष्ण गोपीपति, रमारमण, वासुरीवादक ग्वालवाल के रूप में ललित एवं भक्तरक्षक, राक्षस- विध्वंसक आदि के रूप में उदात्त गुण से युक्त हैं । विवेच्य सट्टक में उदात्त नगण्य हो गया है, केवल ललित का सौन्दर्य ही प्राप्य है । इसका कारण तत्कालिन संस्कृति का प्रभाव और सट्टक की प्रकृति है । सट्टक में सामान्य जनता के लिए मनोरंजन का साधन जुटाया जाता है । निसर्ग - जनमानस औदात्य को कैसे ग्रहण कर सकता है ? इसलिए सम्पूर्ण कर्पूरमंजरी में ललित - लावण्य का एकाधिपत्य है ।
वर्गीकरण - विवेच्य सट्टक के आधार पर सौन्दर्य को निम्नलिखित रूपों में विभाजित किया गया है
१. दैवी सौन्दर्य
२. मानवीय सौन्दर्य
३. प्राकृतिक सौन्दर्य
४. कलागत सौन्दर्य ।
१०६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
तुलसी प्रज्ञा
www.jainelibrary.org