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मज्भण्हसण्हघणचंदणपंकिलाणं साअ णिसेविअणिरंतरमज्जणाणं । सामासु वीअणअवारिकणुक्खिदाणं दासत्तणं कुणदि पंचसरो बहूणं ॥ ३
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ཟླ༥
विदुषक वैभूषणिक - विभूषा को तो श्रेष्ठ मानता है लेकिन 'गोरंगीए विअ चंदण चच्चा' एवं जिस्सा दिट्ठी सरलधवला कज्जलं तीअ जोग्गं में नैसर्गिक रूप की विद्यमानता पर ही आभूषणों को शोभाधायक मानता है ।
राजा और विदूषक के मत में प्रमुख अन्तर यह है कि दोनों अलंकारसौन्दर्य को मानते हैं, लेकिन विदूषक अलंकारों के मोह में फंसा रहता है परन्तु राजा सहज - लावण्य पर लुब्ध है ।
सौन्दर्य विषयगत या विषयगत ?
कुछ आचार्यो का अभिमत है कि सौन्दर्य विषयगत है, जैसे कस्तुरी मृग की नाभि में स्थित रहता है । कोई भी पदार्थ स्वाभाविक रूप से सुन्दर या असुन्दर नहीं होता, बल्कि व्यक्तिगत रुचि ही उसमें कारण है । जिसको जो अच्छा लगे वह सुन्दर है । जैसे - विष-कीड़ा अंगूर को छोड़कर विष - फल को ही पसंद करता है। शराबी को दूध की अपेक्षा शराब ही प्रिय है । महाकवि हर्ष के अनुसार एक युवति का रूप बालक को वैसा आकृष्ट नहीं कर सकता जैसा एक प्रेम प्यासे युवक को --
यथायूनस्तद्वत्परम रमणीया रमणी
कुमाराणामन्तः करणहरणं नैव कुरुते ॥
महाकवि भारवि भी गुणों का निवास वस्तु में नहीं बल्कि प्रेमी के हृदय में मानते हैं—
वसन्ति हि प्रेम्ण गुणा न वस्तुषु ।"
कुछ सहृदय प्राणी सौन्दर्य को विषयगत मानते हैं । भागवतकार विषय कृष्ण के सौन्दर्य पर ही मुग्ध दिखाई पड़ते हैं । बालक कृष्ण का रूप लावण्य किसे सुन्दर नहीं लगता ?
तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शंखगदायुदायुधम् ।"
श्रीवत्सलक्ष्मं गलशोभिकौस्तुभं, पीताम्बरं सान्द्रपयोद सौभगम् ॥
कृष्ण के सौन्दर्य पर मनुष्य को कौन कहे पशु-पक्षी भी न्योछावर हैं । हरिणियां आज धन्य हो गई प्रभु के रूप को निरखकर -
धन्यास्म मूढमतयोऽपि हरिण्य एता या नन्दनन्दमुपात्तविचित्र वेषम् । आकर्ण्य वेणुरणितं सहकृष्णसारा, पूजां दधुविरचितां प्रणयावलोकैः ।। "
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खण्ड १९, अंक २
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