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डॉ० सम्पूर्णानन्द रस-संचरण को ही सौन्दर्य मानते हैं। कुछ ऐसे विषय हैं जिन्हें देखकर हृदय में रस का संचार होता है, हम उन सबमें मनोहारिता पाते हैं, उसी को सौन्दर्य कहते हैं । २६ डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी सामंजस्य एवं डॉ. खंडेलवाल आकर्षण को सौन्दर्य मानते हैं । २०
_ इस प्रकार उपर्युक्त विचारों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि सौन्दर्य वह है जो रमणीय चित्ताकर्षक एवं मनोहर हो तथा सामंजस्य, अनुपात, औचित्य एवं एकरूपता आदि गुणों से समन्वित हो।
राजशेखर की दृष्टि-~क० मं० में सौन्दर्य के अनेक पर्याय शब्दों-सुंदर लावण्य, रूपशोभा, चारुता, चंगत्तण स्निग्ध (सिणिद्ध) रमणीय, सुकुमार, शोभा आदि का प्रयोग हुआ है। विवेच्य सट्टक में सौन्दर्य विषयक द्विविध अवधारणाएं उपन्यस्त हैं। प्रथम राजा और द्वितीय विदूषक की अवधारणा । १. राजा की दृष्टि में सौन्दर्य -- नैसर्गिक अंगलावण्य एवं समुचित शारीरिक संगठन ही सौन्दर्य है । बाह्यभूषण केवल परम्परा निर्वाहक होते हैं। बाह्य वेश-भूषा केवल मूों के लिए आकर्षक होती है, विदग्धों
को निसर्ग रमणीय रूप ही अभीष्ट है। द्राक्षारस में शर्कर। की क्या आवश्यकता ?
छेआ पुणो पअइचंगिम भावणिज्जा,
दक्खारसो ण महुरिज्जइ सक्कराए ॥४ नैसर्गिक रूप ही लंगिमा (जवानी) और चंगिमा (सुन्दरता) को प्रकट करता है :
पिसुणदि तणुलट्ठी लंगिमंचंगिमं च । राजा के अनुरूप ही विचक्षण का विचार है। उसकी दृष्टि में वास्तविक आंगिक कांति ही सौन्दर्य है। उसमें अंगों की उचित बनावट या आनुपातिक संरचना काम्य है । आभूषण केवल परम्परा निर्वाहार्थ कामिनियों के द्वारा धारण किए जाते हैं । २. विदूषक का अभिमत - नैसर्गिक सौन्दर्य के साथ बाह्याभूषणादि की
अपेक्षा है । यद्यपि विदूषक भी निसर्ग-रमणीयता को स्वीकार करता है लेकिन उसकी दृष्टि में आभूषण शोभा-संवर्धन में सहायक हैं। अलंकार रहित नैसर्गिक सौन्दर्य उतना अच्छा नहीं लगताणिसग्गचंग्स्स वि माणुसस्स सोहा समुम्मीलदिभूसणेहिं ।"
मणीण जच्चाण वि कंचणेण विहूसणे लब्भदि कावि लच्छी ।।
उभयमत समीक्षा-राजा निसर्ग-रमणीयता का पक्ष पाती है लेकिन विचक्षण द्वारा अलंकारालंकृता क० मं० के सौन्दर्य का वर्णन किए जाने पर उसकी प्रशंसा करता है। इसी प्रकार चतुर्थ जवनिकान्तर में अलंकार विभूषिता युवति को कामदेव का स्वामी बताया है
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तुलसी प्रज्ञा
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