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________________ काव्यरस बोध या सौन्दर्य-बोध की प्रक्रिया में सम्भोग, रतिक्रीड़ा, स्पर्शादि पीछे छूट जाते हैं, वहां रूप की सुरा शील की सुधा बन जाती है । काम राम बनकर काव्य धरातल पर अवतरित होता है। प्रस्तुत संदर्भ में क० मं० में निष्ठित कवि की सौन्दर्य-भावना की विचारणा अवधेय है। सुन्दर शब्द से भाव में 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च'५ से 'ष्य' प्रत्यय होकर सौन्दर्य शब्द निष्पन्न होता है । 'वाचस्पत्यम्' कोश के अनुसार 'सु' उपसर्ग पूर्वक उन्द् (उन्दी क्लेदने") धातु से 'अरन्' प्रत्यय करने पर सुन्दर शब्द निष्पन्न होता है । सुष्ठु उनत्ति आर्दीकरोति चित्तमिति सुन्दरम्" अर्थात् जो चित्त को आर्द्र करे वह सुन्दर है । 'सु' उपसर्ग के साथ भ्वादिगणीय टुनदि धातु से सुंदर शब्द को निष्पन्न किया जा सकता है । जो नन्दित अर्थात् चित् को प्रसन्न करे वह सुन्दर है । जो हृदय को आनन्दित करे, मन में प्रवेश कर जाए वह सुन्दर है 'सवण पहणिविट्ठा माणसं मे पविट्ठा" _ 'सुन्द' पूर्वक रा-दाने" धातु से सुन्दर शब्द व्युत्पन्न होता है । जो सुन्द (सुन्दर) को देता है वह सुन्दर है । उसका भाव सौंदर्य है—सुन्द रातीति सुन्दरम् तस्यभावः सौन्दर्यम् । अर्थात् जो आनन्दित करे, चित्त को द्रवित करे, आत्मा को विकसित करे वह सुन्दर है। जो क्षण-क्षण रमणीय हो, नेत्रों का महोत्सव हो वह सौन्दर्य है । भागवतकार के शब्दों में तदेवरम्यं रुचिरं नवं-नवं, तदेव शश्वन्महतो महोत्सवम् ॥" कालिदास ने निसर्ग-रमणीयता को सौन्दर्य कहा है--किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् । महाकवि माघ की दृष्टि में क्षण-क्षण नवीनता को प्राप्त होने वाला सौन्दर्य है।" वामन ने अलंकार को सौन्दर्य तथा आनन्दवर्धन ने अलंकार को सौन्दर्य चारुत्व सम्बर्द्धन में हेतु माना है।" संस्कृत साहित्य में रूप गोस्वामी ने सर्वप्रथम सौन्दर्य शब्द को प्रत्यक्ष रूप से पारिभासित किया है अङगप्रत्यक्षकानां यः सन्निवेशो यथोचितम । सुश्लिष्टः संधि-बंधः स्यात्तत्सौन्दर्यमितीर्यते ॥१५ अर्थात् अंग-प्रत्यङ्ग का यथोचित सन्निवेश एवं सुश्लिष्ट संधि-बंध को सौंदर्य कहते हैं । विवेच्य सट्टक में भैरवानंद के ध्यानविमान से आनीता सद्यः स्नाता युवति को देखकर विदूषक कहता है----अहो ! से रूवसोहा १०२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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