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कर्पूरमंजरी में सौन्दर्य भावना
0 डॉ. राय अश्विनी कुमार - डॉ. हरिशंकर पांडेय
___ वालकवि एवं कविराजादि विविध सार्थक अभिधानों से विभूषित महाकवि राजशेखर ने लावण्यललिता, षट्पदायतनशोभासंवलिता, श्रवणपरिव्याप्त लोचनकलिता, लाटदेशाधिपतिसुता, कमनीयकेशा, घनसारवत्-उज्ज्वलवेशा कर्पूरमंजरी की रमणीया-प्रेम-कथा का आश्रयणकर महिला-अंगवत् चंगिमा प्राकृत-भाषा की नाट्य (सट्टक) परम्परा में कर्पूरमंजरी का निर्माण किया, जो इस परम्परा का आद्याभिमान ग्रन्थ है । चार जवनिकाओं में कर्पूरमंजरी और धीरललितनायक गुणसमन्वित नपति चण्डपाल की प्रेम कथा का सुन्दर वर्णन है।
प्रारम्भिक मंगलवाक्य-'विलिहंतु कव्व कुसला जोण्हं चकाराविअ" एवं 'णमह अणंग रइण मोहणाई" रूप काव्यकला के कमनीय-शिखर से रति एवं रमणीयता की रम्य-आह्लादिनी प्रस्फुटित होकर अन्त तक उपचित होती हुई 'सत्थो णंदतु सज्जणाण'3 रूप शिष्टजन की मंगलकामना के साथ विश्रान्ति को प्राप्त होती है।
भले ही काव्यालोचकों को कर्परमंजरी की चारु-रसनीयता में शृगार और काम का भद्दा प्रदर्शन बाधक दिखाई पड़े लेकिन वस्तुतः यहां कवि राजशेखर के हृदय की सम्पूर्ण वल्गुता एवं बुद्धि की अद्भुत कला-कुशलता का प्रस्फुटन हुआ है । काव्य का परम लक्ष्य आह्लाद एवं आनन्द की प्राप्ति है। कविराजशेखर के इस सट्टक-काव्य का भी वही लक्ष्य है । प्रथम मंगलाचरण के श्लोक में प्रयुक्त 'णंदंतु', फुरउ, विलिहंतु आदि क्रियापदों से यह स्पष्ट भासित हो रहा है कि सट्टककार को भी वही सौन्दर्य वही आनन्द अभिलक्ष्य है जो गुरुदेव ठाकुर के शब्दों में 'सत्य और मंगल का पूर्ण समन्वित रूप है । यह भी सत्य है कि उसका प्रारम्भ इन्द्रिय से होता है, परन्तु पुनः पुनः अनुसंधानात्मा रूप भावना के द्वारा कवि पाठक रसिक, छइल्ल आदि वहां पहुंच जाते हैं जहां रूप ही अवशेष रहता है, रमणीयता ही अपना लास्य दिखलाती
खण्ड १९, अंक २ Jain Education International
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