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________________ अनेक सैनिक और गैर-सैनिक संघों एवं गुटों का निर्माण हुआ है । ये सभी संगठन सजातीयों के प्रति अनुराग व विजातीयों के प्रति द्वेष के परिणाम थे। ६.२ सर्व-जीव समानता--भगवान महावीर ने निःशस्त्रीकरण का आधार प्रस्तुत करते हुए कहा--सब जीव समान हैं । जीवों के शरीर भले ही छोटे-बड़े हों, आत्मा सबमें समान है। ज्ञान-शक्ति सब जीवों में समान है, भले ही ज्ञान का विकास सब जीवों में समान न हो। आत्मवीर्य या सामर्थ्य वीर्य की दृष्टि से कोई न्यूनाधिक नहीं होता। अतः सजातीय-विजातीय, रंग-भेद, जीवन-स्तर, विचार धारा आदि के आधार पर भेद-भाव न रखकर प्राणी-मात्र के प्रति मैत्री-भाव निःशस्त्रीकरण या विश्व शान्ति का आधार बन सकता है। प्राणि मात्र को जीवन प्रिय है । सूक्ष्म जीव भी अपने प्राण लूटने की स्वीकृति कब देते हैं ? जो व्यक्ति बलात् उनके प्राण लूटते हैं, वे उनकी चोरी करते हैं । ५ ७. निःशस्त्रीकरण का अधिकारी आयारो में आत्मवादी को नि:शस्त्रीकरण का अधिकारी माना गया है। अनात्मवादी निःशस्त्रीकरण नहीं कर सकता ।१६ भगवान् महावीर ने जिस अहिंसात्मक आचार का निरूपण किया, उसका आधार आत्मा है। आत्मा का स्पष्ट बोध होने पर ही अहिंसात्मक आचार में आस्था हो सकती ७.१ निःशस्त्र कौन हो सकते हैं जो अपना दुःख जानता है, वही दूसरों का दुःख जान सकता है। जो दूसरों का दुःख जानता है, वही अपना दुःख जान सकता है । आत्मतुला की यथार्थ अनुभूति हुए बिना नि:शस्त्रीकरण का अधिकार नहीं मिल सकता । आत्मवाद की ऐसी व्याख्या भगवान् महावीर को आधुनिक मानवतावाद के निकट ला देती है । भगवान महावीर ने नि:शस्त्रीकरण का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया----जो दूसरे के अस्तित्व को नकारता है वह स्वयं अपने ही अस्तित्व को नकारता है । शस्त्रीकरण के मार्ग पर चलने वाला दूसरे की अवहेलना कर आत्म-तत्त्व की ही अवहेलना करता है । अतः निःशस्त्र वे ही हो सकते हैं जिन्हें सभी प्राणी आत्मवत् लगें। महावीर ने कहा"पुरुष ! जिसे तू हनन करने योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है । जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, बह तू ही है। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है । जो व्यक्ति क्रिया की प्रतिक्रिया देख लेता है, वह किसी को भी मारना या अधीन कहना नहीं चाहता। __ शस्त्रीकरण से वे ही बच सकते हैं जो अतीत के अनुभवों के आधार खण्ड १९, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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