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पास है, उसकी सुरक्षा का प्रयास करता है तथा जो कुछ उसके पास नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिए वह दूसरे देशों में पैर पसारता है। दूसरों के अधिकारों पर चोट करता है, उन पर विजय चाहता है तथा बार-बार शस्त्र का प्रयोग करता है। सुकरात ने भी यही कहा था-"लोग सरल जीवन-पद्धति से सन्तुष्ट नहीं होंगे । वे सोफा, मेज तथा अन्य उपस्कर इकट्ठा करते रहेंगे । हमें आवास, वस्त्र तथा जुते जैसी आवश्यकताओं से आगे बढ़ जाना चाहिए"" उसके बाद हमें अपनी सीमाओं को बढ़ाना चाहिए, क्योंकि मूल स्थिति अधिक समय तब नहीं रहती "और जो प्रदेश अपने मूल निवासियों का भरण-पोषण करने में काफी था वह अब उसके लिए छोटा हो जाएगा,"...""तब हम अपने पड़ोसियों की जमीन का टुकड़ा हथियाना चाहेंगे। यदि हमारी तरह उनकी भी आवश्यकताएं सीमा को पार कर जाएं और वे स्वयं धन के असीमित संचय के लिए लग जाएं तो परिणाम होगा-- युद्ध ।"" अत: इच्छाओं का विस्तार शस्त्रीकरण का मूल है जो अज्ञान के कारण है । अज्ञानी को हिंसा व शस्त्रीकरण की विभीषिका समझाना कठिन है।' ज्ञान ही संयम का आधार
४. शान्ति की अविभाज्यता
__ भगवान महावीर ने युद्ध के मूल पर प्रहार किया। वे आज के मानवतावादी, शांतिवादी आन्दोलनों के सिद्धांतों की अपेक्षा कहीं अधिक गहरे में गये । आधुनिक संदर्भो में यदि कहें तो उनका ध्यान प्रकृति के असंतुलन और पर्यावरण प्रदूषण तक गया । वे प्रकृति के किसी भी तत्त्व के साथ किसी भी प्रकार की छेड़-छाड़ को हिंसा मानते थे। इसलिए उन्होंने पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को भी सजीव माना। वनस्पति को तो वे जीवन-युक्त मानते ही थे । उनका मानना था जो पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है वह अन्य जीवों की हिंसा का भागी भी बनता है। यह अवधारणा आज के वैज्ञानिक अवधारणा के बहुत निकट है । प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाने पर वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्य का जीवन भी संकट में पड़ जाता है। प्रो. गाल्टंग के अनुसार शांति समग्र है, अविभाज्य है। उन्होंने अस्तित्व के पांच प्रकार बतलाए हैं-प्रकृति, मानव, समाज, विश्व और संस्कृति । उनके अनुसार इन पांचों अस्तित्वों का साध्य भिन्न-भिन्न होते हुए भी परम साध्य के रूप में ये शांति की अपेक्षा रखते हैं
प्रकृति का साध्य है--परिस्थिति का संतुलन मानव का साध्य है --बोधि प्राप्त करना समाज का साध्य है...- विकास विश्व का साध्य है - शान्ति
खण्ड १९, अंक २
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