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पश्चात् एक निश्चित अवधि तक पीने योग्य होता है, उस अवधि के पश्चात् त्याज्य है।
उपयुक्त चर्चा से यह बात स्पष्ट हो जाती है किमांस की ऐसी कोई अवस्था नही है जिसमें जीव नहीं हो और हिंसा न हो। किन्तु फिर भी एक प्रश्न यह है कि जिस प्रकार मांस खाने से हिंसा होती है उसी प्रकार मूंग, उड़द आदि के खाने से क्या हिंसा नहीं होती है, क्योंकि मूंग, उड़द आदि के शरीर से जीव का संयोग उसी प्रकार होता है जिस प्रकाक दो या दो से अधिक इन्द्रिय जीवों के शरीर से होता है। इसके समाधान में कहा गया है कि मांस को अपेक्षा उनको खाने में राग कम होता है अर्थात मांस खाने में राग अधिक होता है । और राग-द्वेष हिंसा के मूल कारण हैं । हिंसा से हिंस्य को दुःख और हिंसक का बन्ध होता है तथा बन्ध दुःख का कारण है। इससे फलित होता है कि मांस प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दुःख देने वाला है। यहां प्रश्न उठते हैं कि मांस के खाने में गग्र अधिक क्यों होता है और अन्न के खाने में राग कम क्यों होता है ? क्या जिसके राग-द्वेष नहीं उसके मांस खाने में कोई दोष नहीं ? राग-द्वेष हिंसा के मूल कारण क्यों है ? हिंसा से दुःख क्यों होता है ? क्या जिस हिंसा से दुःख नहीं होता है वह हिंसा नहीं है ? हिंसा से बन्ध क्यों होता है, अहिंसा से क्यों नहीं ? आदि ।
जैन दार्शनिक स्वर्ग और नरक की भी कल्पना करते हैं तथा यह मानते हैं कि जो जीव अच्छे कर्म करेगा उसे स्वर्ग मिलेगा तथा वहां वह सुख भोगता हैं और जो बुरे कर्म करेगा उसे नरक मिलेगा तथा वहां उसे दुःख भोगने पड़ते हैं । यहां प्रश्न उठता है कि अच्छे और बुरे कर्मों का मापदण्ड क्या है ? अच्छे कर्म करने वाले को स्वर्ग और बुरे कर्म करने वाले को नरक क्यों मिलता ? स्वर्ग में सुख ही क्यों है, दुःख क्यों नही है ? कर्म तथा सुख-दुःख में क्या सम्बन्ध है ? क्या मांसाहार एक बुरा कर्म है ? इसके जवाब में कहा गया है। मांस खाना एक बुरा कर्म है और जो मांस खाता है उसे नरक मिलता है तथा नरक में उसके मांस को खाया जाता है अर्थात् यदि कोई व्यक्ति किसी जीव की हिंसा करके उसके मांस को खाता है उसे फिर नरक में जाना पड़ता है, वहां उसका मांस खाया जाता है तथा अधिक दुःख दिये जाते हैं ।१२ दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जिन जीवों का मांस खाया जाता है, उनको जितना दु:ख होता है कालान्तर में उससे अधिक दुःख मांस खाने वाले को मिलता है, ठीक वैसे ही जैसे दूसरे को दिया हुआ धन कलान्तर में ब्याज के बढ़ जाने से अधिक मिलता है ।" प्रश्न उठता है कि क्या नारकीय जीवों के शरीर होता है अर्थात् क्या जिस प्रकार त्रस जीवों के शरीर होता है वैसा शरीर नारकीय जीवों के होता है ? नारकीय जीवों का शरीर किन तत्त्वों से बना होता है ? क्या नारकीय जीवों को दुःख की
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खण्ड १९, अंक २
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