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________________ इन्द्रिय जीवों के शरीर का भक्षण भी त्याज्य होना चाहिए अर्थात् हिंसा होने के कारण मांस भक्षण त्याज्य है उसी प्रकार एक इन्द्रिय जीवों का भक्षण भी त्याज्य होना चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं है । तब प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों है ? दूसरे, सभी जीवों के घात से होने वाली हिंसा समान रूप में होती है या भिन्न-भिन्न रूपों में ? अर्थात् सभी प्रकार के जीवों के घात से होने वाली हिंसा की मात्रा समान होती है या भिन्न-भिन्न ? यदि समान है तब तो एक इन्द्रिय जीवों के घात से होने वाली हिंसा में तथा त्रस जीवों की हिंसा में कोई भेद नहीं रह जाता है अर्थात् यदि सभी प्रकार के जीवों के घात से होने वाली हिंसा एक जैसी होती है तब एक इन्द्रिय जीवों के शरीर का भक्षण किया जा सकता है ? और यदि विभिन्न जीवों के घात से होने वाली हिंसा में भेद है तब वह भेद मात्रात्मक है या गुणात्मक ? यदि मात्रात्मक भेद है तब उसका कारण तथा आधार क्या है ? क्या कोई ऐसा जीव है जिसे मारने पर हिसा नहीं होती है ? क्या केवली को मारने पर हिंसा होती है ? अर्थात् क्या केवली की हिंसा सम्भव है ? यदि सम्भव है तब वह केवली कैसे हो सकता है ? और यदि सम्भव नहीं है तब केवली का मांस खाने में क्या दोष है ? या जो जीव स्वय मर चुका है उस जीव का मांस खाने पर क्या हिंसा होती है ? अर्थात् जिस जीव को न स्वयं ने मारा हो, न किसी दूसरे व्यक्ति से मरवाया हो और न ही मारते हुए का अनुमोदन किया हो अपितु जो अपनी आयु पूरी कर चुका है तथा स्वयं ही अपने शरीर को छोड़ चुका है ऐसे जीव का मांस खाने में क्या दोष है ? इसके जवाब में जैन दार्शनिकों का कहना है कि स्वयं मरे हुए जीव का मास खाने से भी हिंसा होती है, क्योकि उसके मांस में अनेक जीव रहते हैं अर्थात् मांस में अनेक जीव उत्पन्न होते रहते हैं । ऐसी स्थिति में मांस खाया जाये तव मांस के आश्रय में रहने वाले जीवों को हिंसा होती है। प्रश्न उठता है कि मांस के आश्रय में रहने वाले कोन से जीव हैं ? प्रत्युत्तर में कहा गया है कि सम्मुच्छिम निगोदिय जीव मास के आश्रय में रहते हैं अर्थात् स्वयं उत्पन्न होने वाले एक इन्द्रिय जीव मास में रहते हैं। अब यदि यह मान लिया जाये कि एक इन्द्रिय जीव मांस के माश्रय में रहते है तब भी यह सिद्ध नहीं होता है कि मांसाहार त्याज्य है, क्योंकि वनस्पति आदि एक इन्द्रिय जीव हैं जिन्हें खाया जाता है और उनकी हिसा को कोइ महत्त्व नहीं दिया जाता है । । एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि मांस में उसी पशु की जाति के, जिस जाति के पशु या जीव का मास है, जीव उत्पन्न होते रहते हैं। यहां प्रश्न है कि "उसी पशु की जात' से क्या तात्पर्य है ! क्या बकरे के मांस में अनेक बकरे उत्पन्न होते रहते है अर्थात क्या बकरे के मांस के आश्रय में बकरे की जाति के जीव रहते हैं ? यदि ऐसा है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि मांस में एक इन्द्रिय जीव रहते हैं, क्योंकि खण्ड १९, अंक २ ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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