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है कि मांस-भक्षण कितनी मात्रा में उपयोगी है, किन्तु इसका यह मतलब नहीं होता है कि मांस-भक्षण ही सर्वोपयोगी है। इसी पर विचार करते हुए काम सूत्रकार वात्स्यायन मुनि कहते हैं कि कुत्ते के मांस के रस-वीर्य-विपाक (आदि गुणधर्म और अन्य उपयोग) वैद्यक-शास्त्र में वर्णित मिले तो क्या इसीलिए वह विचारवान् मनुष्यों के लिए भक्षणीय हो जाएगा
"रसवीर्यविपाका हि श्वमांसस्यापि वैद्यके ।
कीर्तिता हि तत् किं स्याद् भक्षणीयं विचक्षणः ॥13
मांस शब्द के अक्षरों को ध्यान में रखते हुए उसकी व्युत्पत्ति परक व्याख्या करते हुए महाभारत में उसकी निन्दा की गई है। कहा गया है कि इहलोक में मैं जिसका मांस खाता हूं, परलोक में वही मुझको खाता है, यही मांस शब्द का मांसत्व है
"मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ __ आचार्य चाणक्य जैसे विचक्षण भी सभी प्रकार के व्यक्तियों के लिए मांस-भक्षण का निषेध करते हैं
"मांसभक्षणमयुक्तं सर्वेषाम् ।'५
यदि समाज में रहने वाले मनुष्य में दया, माया, ममता, सहिष्णुता आदि भाव नहीं रहें तो वस्तुतः वह व्यक्ति समाज में रहने के योग्य नहीं होता है । जो मांस-भक्षण करने वाला होता है, निश्चित रूप से उसके पास इन गुणों का शाकाहारी व्यक्ति की अपेक्षा अभाव होगा ही, इसीलिए जिनधर्मविवेक में भी कहा गया है
"दया मांसाशिनः कुतः ।"६
वैदिक धर्म पर एक आक्षेप होता है कि कुछ कर्म-काण्डीय विधानों में पशु-हिंसा आदि आवश्यक होता है, किन्तु सूक्ष्मतया विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वैदिक धर्म भी किसी तरह की हिंसा का विरोधी है। फिर भी कुछ कर्मकाण्डीय हिंसा का खण्डन कर पाना कठिन ही है, किन्तु वेदविहित यह हिंसा समाज में कैसे आ गई, इसका भी उचित उत्तर दे पाना सम्भव नहीं है । सम्भव है, वैदिक धर्म के क्रमिक विकास में कुछ विशिष्ट सम्प्रदायों ने इस कर्म काण्डीय हिंसा को स्वीकार कर लिया गया हो।
वैदिक भाषा में यज्ञ के लिए जिस पर्यायवाची शब्द का अधिक मात्रा में उल्लेख मिलता है, वह है--'अध्वर'। इसी अध्वर शब्द से अध्वर्यु शब्द निष्पन्न होता है जो यज्ञ कराने वाले को बोधित करता है। यह अध्वर शब्द ध्वर का नकारात्मक (न ध्वर-अ ध्वर) है । ध्वर शब्द का अर्थ होता है -
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तुलसी प्रज्ञा
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