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________________ शाकाहार : शास्त्रीय पक्ष D डॉ० चन्द्रकांत शुक्ल "योत्ति यस्य यदा मांसमुभयोः पश्यतान्तरम् । एकस्य क्षणिका प्रीतिरन्यः प्राणवियुज्यते ॥१ जब कोई किसी का मांस खाता है तब दोनों में अन्तर देखिए-एक को (मांस खाते समय) क्षणिक आनन्द होता है और दूसरा अपने प्राणों को खो देता है। ___सत्य ही, यह कितना घृणित व्यापार है कि कोई अपनी जीभ के स्वाद के लिए किसी की हत्या कर डालता है । ___ यद्यपि प्राचीन भारतीय शास्त्रों में मांस-भक्षण का उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु समग्रतः विचार करने पर हम साधिकार यह कह सकते हैं कि प्राचीन भारतीय साहित्य मांस-भक्षण को युक्तियुक्त नहीं मानता है। __ "जीवो जीवस्य जीवनम्" की व्याख्या करने वाले कहते हैं कि एक जीव दूसरे जीन का भक्षण करके अपने जीवन को संचालित करते हैं, किन्तु वस्तुतः इस उक्ति का अभिप्राय यह है कि समाज में एक जीव दूसरे पर आश्रित रहकर अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में 'पंचपंचनखाः भक्ष्याः' तथा 'न भक्ष्यो ग्रामकुक्कुट:' कहकर पांच प्रकार के पांच नख वाले प्राणियों को खाने की जो बात कही गई है, वहीं यह भी कहा गया है कि पालतू मुर्गे आदि को नहीं खाना चाहिए। ऐसे वाक्यों का उल्लेख होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि हमारे शास्त्रकार मांस-भक्षण के पक्षधर थे, क्योंकि महर्षि मनु ने कहा है कि मांसभक्षण, मद्य-पान आदि में उतना दोष नहीं है। हां, उनके प्रति मनुष्यों में प्रवृत्ति देखी जरूर जाती है, किन्तु यदि उनको नहीं अपनाने की भावना मन में हो तो यह भावना बहुत प्रशंसनीय कही जाएगी "न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्ति रेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफलाः ॥" कुछ आयुर्वेदीय ग्रन्थों में विविध प्रकार के भोज्य पदार्थों का उल्लेख करते हए उसके अन्तर्गत मांस का भी उल्लेख किया गया है और बताया गया खण्ड १९, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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