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________________ आ रहे थे। पुष्पपुर के राजा महीचन्द भी मुनि महाराज के दर्शन के लिए पधारे । जिस समय राजा महीचन्द महाराज के चरणों में बैठे थे उसी समय वे तीनों कन्यायें भी वहां आ पहुंची। उनकी दयनीय अवस्था देख राजा के मन में करुणा भाव जागृत हुये । मुनि महाराज सबको कुव्यसन छोड़ने का उपदेश दे रहे थे। जब वे अपना उपदेश पूरा कर चुके तब राजा ने विनम्र होकर महाराज से निवेदन किया कि 'महाराज ! इन तीनों कन्याओं को देख कर मेरे मन में बार-बार दया का भाव जाग्रत हो रहा है। मेरे हित में कृपया बतायें कि ऐसा क्यों हो रहा है।' तब महाराज ने पूर्व भव का सारा वृतान्त वर्णन किया। महाराज ने कहा---'हे राजन् ! तुम पूर्व भव में बनारस नगर के राजा विश्व-लोचन थे। यह तुम्हारी रानी नेत्र-विशाला थी तथा दूसरी चामरी दासी थी । यह तीसरी कन्या मदनवती है । ये तीनों स्वेच्छाचार और मुनि को यातनायें देने के कारण नरक और तिर्यंच गति में भ्रमण करती हुई इस पर्याय में आई हैं। और राजा तुम भी कई भव धारण करते रहे । एक भव में सुयोग से तुम्हें सद्बुद्धि आई । मुनि महाराज के दर्शन हुये और उनके उपदेश से श्रावक वेष धारण किया। फिर संन्यास धारण कर अपने प्राण तज दिये और प्रथम विमान में देव पैदा हुये । वहां से चय कर इस भव में तुम पैदा हुये हो । कुछ समय बाद तुम निश्चय ही मोक्ष जाओगे।' मुनि महाराज के ये वचन सुनकर वे तीनों कन्यायें उनके चरणों के निकट आईं और विनम्र होकर पूछने लगी कि इस कष्ट से मुक्त होने का कुछ उपाय है ? तब महाराज ने करुणा धारण कर कहा कि 'तुम तीनों 'लब्धि विधान व्रत' धारण करो। इससे तुम्हारा कल्याण होगा।' महाराज के ये वचन सुनकर वे हर्षित हुई तथा पूरी श्रद्धा के साथ जैसी मुनि महाराज ने विधि बतलाई उसके अनुसार व्रत धारण किये । मन-वचन-काय से व्रत विधान पूर्ण किया और फिर उद्यापन किया। आजीवन शील व्रत धारण किया । कुछ समय बाद इन तीनों ने आर्यिका दीक्षा धारण कर ली । अन्त में समाधि पूर्वक मरण किया और पांचवें स्वर्ग में देव हुईं। यह सब मुनिभक्ति और 'लब्धि विधान व्रत' का ही महात्म्य है । महापुराण (७४/३५७) में भी वर्णन आता है कि गौतम स्वामी अपने पूर्व भव में आदित्य विमान में देव थे । वहां से आयु पूर्ण करने के बाद वे तीनों क्रमशः इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति नाम से प्रसिद्ध हुये। गौतम स्वामी भरत क्षेत्र के मगध देश में द्विजपुर नाम का एक नगर था । इस नगर में अनेक विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। यहां सदा वेदों की ध्वनि गूजा करती थी। इसी नगर में सदाचार परायण बहुश्रुत और सम्पन्न गौतम गोत्रिय शांडिल्य तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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