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नामक एक ब्राह्मण निवास करता था। उसके रूप और शील से सम्पन्न स्थण्डिला और केसरी नामक दो पत्नियां थीं । एक दिन रात्रि को सोते हुए अन्तिम प्रहर में स्थण्डिला ब्राह्मणी ने शुभ स्वप्न देखे । तभी पांचवें स्वर्ग से एक देव का जीव आयु पूर्ण होने पर माता स्थण्डिला के गर्भ में आया । गर्भावस्था में माता की रूचि धर्म की ओर विशेष बढ़ गयी ।
नौ माह व्यतीत होने पर माता ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। उस पुण्यशाली पुत्र के उत्पन्न होते ही घर में और बाहर भी खुशी का वातावरण छा गया। एक निमित्तज्ञानी ने पुत्र के ग्रहलग्न देखकर भविष्यवाणी की "यह बालक बड़ा होने पर समस्त विद्याओं का स्वामी होगा और सारे संसार में इसका यश फैलेगा।"
बालक अत्यन्त रूपवान् था। उसके मुख पर अलौकिक तेज था। उसे जो भी देखता था, वह देखता ही रह जाता था। माता-पिता ने उसका नाम गौतम रखा । यही बालक आगे चलकर इन्द्रभूति के नाम से विख्यात हुआ ।
बालक गौतम जब तीन वर्ष का था, तब माता स्थण्डिला ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया। यह जीव भी पांचवें स्वर्ग से आया था। वैसा ही पुण्यात्मा और प्रभावशाली । इसका नाम गार्य रखा और बाद में यह पुत्र अग्निभूति नाम से विख्यात हुआ।
इसके कुछ समय बाद ब्राह्मण की दूसरी पत्नी केसरी के भी एक सुन्दर पुत्र हुआ और यह जीव भी पांचवें स्वर्ग से आया था। इसका नाम रखा भार्गव । बाद में यह वायुभूति नाम से प्रसिद्ध हुआ।
तीनों भाइयों ने सम्पूर्ण वेद और वेदांगों का अध्ययन किया और वे पारगंत हो गये। उन तीनों ने अपने-अपने गुरुकुल खोले और छात्रों को विद्याध्यापन करने लगे। इन्द्रभूति के पास पांच सौ शिष्य पढ़ते थे। इतने विद्वान् होकर भी इन्द्रभूति को अपनी विद्या का बड़ा अभिमान था। वे समझते थे कि उनके समान विद्वान् इस संसार में अन्य कोई नहीं है।
एक दिन भगवान् महावीर छद्मस्थ अवस्था में विहार करते हुए ऋजुकूला नदी के तट पर आये और वहां शालवृक्ष के नीचे एक शिला पर ध्यान लगाकर बैठ गये। उन्होंने वैशाख शुक्ला दसमी को चारों घातिया कर्मों को नाश कर दिया और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया । चारों प्रकार के देवों और इन्द्रों ने आकर भगवान् को नमस्कार किया। सौधर्म इन्द्र ने कुबेर को तत्काल समवशरण निर्माण करने की आज्ञा दी। देवताओं ने शीघ्र ही समवशरण की रचना कर दी । उसमें बारह कक्ष थे । देव, मनुष्य और तिथंच यथानिश्चित कक्षों में आकर बैठ गये । भगवान गन्धकुटी में सिंहासन पर विराजमान हो गये किन्तु उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी ।
यह देखकर सौधर्म इन्द्र ने अपने भवधिज्ञान से जाना कि यदि इन्द्र
खण्बू १९, अंक २
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