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________________ बरवाडा (सवाई माधोपुर) के पास रामपुरा ग्राम के सिंघई सुखदेवजी पाटनी के पुत्र थे। रचना संवत् १७८२ में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी सोमवार को आगरा के मोती कटले के मन्दिर में बनकर तैयार हुई है। कवि ने इस हिन्दी पद्यमय कथा की रचना पंडित अभ्र द्वारा संस्कृत में रचित कथा के आधार पर की। इस कथा में बताया गया है कि गौतम स्वामी ने पूर्व भव में 'लब्धि विधान व्रत किया था। इसी व्रत के प्रभाव से वे ऋद्धिधारी देव होकर गणधर पद के धारक हुए। उनके पूर्व भवों का विवरण निम्न प्रकार है इस भरत क्षेत्र में काशी नाम का एक देश था। उसके नगर बनारस में विश्वलोचन नाम का एक राजा राज्य करता था। इस राजा की एक बहुत ही सुन्दर रानी थी जिसका नाम नेत्र-विशाला था। (यही रानी गौतम स्वामी का पूर्व भव है ।) रानी बहुत ही रूपवती एवं गुणवती थी। राजा भी उसे बहुत चाहता था । एक दिन की बात है कि राजा अपने कक्ष में बैठा एक नर्तकी का नृत्य देख रहा था। राजा नृत्य देखने में बहुत ही मगन हो गया। रात बहुत व्यतीत हो चुकी थी। संगीत की मधुर आवाज आ रही थी। रानी से रहा न गया। उसने अपने झरोखे से झांककर नर्तकी को देखा । नर्तकी अपने हाव-भाव दिखाकर राजा को प्रसन्न कर रही थी। इसे देखकर रानी के मन में विकार उत्पन्न हुआ और आकुल-व्याकुल होने लगी। वह मन में करने लगी कि 'मैं तो इतनी सुन्दर हूं, लेकिन मात्र इस महल की होकर रह हूं। मेरी दशा तो एक कैदी के समान है।' उसने मन ही मन विचार किया कि वह इस बन्दीगृह से मुक्त होकर ही रहेगी तथा अपनी सुन्दरता से सबको मोहित करेगी। रानी ने अपनी यह दुर्भावना अपनी दासी से व्यक्त की इस दासी का नाम चामरी था । दासी के एक बेटी थी वह दुराचारिणी थी। इसका नाम मदनवती था। इन तीनों ने मिलकर महल से बाहर निकल जाने की एक योजना बनाई । रानी के आकार का एक पुतला बनाया और उसे सुन्दर तरीके से सजाकर रानी के पलंग पर बैठा दिया। फिर ये तीनों नकली वेष धारण कर महल से निकल गईं। इधर राजा नृत्य और संगीत समाप्त होने पर कामातुर हो रानी के महल जा पहुंचा । वह इतना कामान्ध हो गया था कि वह रानी तथा उसके पुतले में भी अन्तर न समझ पाया । वह सीधा ही पुतले के निकट पहुंचकर काम चेष्टा करने लगा। लेकिन जैसे ही उसने स्पर्श किया तो वह समझ गया कि कुछ गड़बड़ है । उसने दासी चामरी को आवाज लगाई। लेकिन वह वहां थी ही कहां । उसने यहां-वहां रानी की खोज की, लेकिन वह उसे नहीं मिली। राजा चिन्तामुक्त रहने लगा । समय बीतने लगा लेकिन वह रानी को भुला न ७० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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