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________________ है। पं० सुखलालजी एवं बेचरदासजी के विचार है कि आ० कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में जो द्रव्य का विवेचन किया वह अनेकांतदृष्टि पर अधारित है । इस प्रकार आ० कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में अनेकांन्त दृष्टि के समीचीन बिन्दु प्राप्त होते हैं । जो वस्तु तत्व की संसिद्धि में सहायक बनकर मानव को परमार्थ तक पहुंचाने में उपयोगी भूमिका का निर्वाह करते हैं । संदर्भ : १. यदेवसत्तदेवासत् यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुत्व । निष्पादक परस्पर विरुद्ध शक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ॥ २. तं यत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज्जपमाणं चुक्किज्ज चलं ण घेत्तव्वं ॥ समयसार आत्मख्याति १०।२४७ समयसार गाथा ५ ३. इह किल सकलोद्भासि स्यात्पदमुद्रित शब्दब्रह्मोपासनजन्मा आत्मख्याति टीका गा० ५ ४. ववहारोऽभूत्थो भूयत्थो दे सिदो दु सुद्धणओ । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ॥ ५. समयसार - सम्पादन पं० पन्नालाल साहित्याचार्य पृ० २३,२४ ६. तात्पर्य वृत्ति पृ० २३ गाथा ११ ७. सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरिसीहि । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्टिदा भावे ॥ समयसार गाथा १२ 3. व्यवहरणनयः स्याद् यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहित पदानां हन्तहस्ता समयसार गा० ११ ६६ बलम्वः । तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमात्र पर विरहितमन्तः पश्यतां नैष किञ्चिद् ॥ १०. कम्मं बद्धमबद्ध जीवे एवं दु जाण णय पक्खं । पक्खातिक्कंती पुण भण्णादि जो सो समयसारो || समयसार गाथा १४२ Jain Education International आ० अमृतचन्द समयसार कलश ५ ११. य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् । विकल्प जालच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ॥ For Private & Personal Use Only वही कलश ६९ तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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