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________________ उत्पन्न करने वाले सहभूत लक्षण रूप गुण नहीं होते और गुणों के विना द्रव्य नहीं होता इस कारण द्रव्य और गुण अभेद स्वरूप हैं । प्रवचनसार५ में ज्ञानगुण जीव ही है ऐसा कहा गया है । आत्मा के विना चेतना गुण और किसी जगह नहीं रहता। इस कारण ज्ञानगुण जीव है और जीवद्रव्य चैतन्य गुणरूप है अथवा अन्यगुण रूप भी है। ज्ञान और आत्मा में भेद नहीं, दोनों एक हैं, क्योंकि अन्य सब अचेतन वस्तुओं के साथ सम्बन्ध न करके केवल आत्मा के साथ ज्ञान का अनादि निधन स्वाभाविक गाढ़ सम्बन्ध है। इस कारण आत्मा को छोड़कर ज्ञान दूसरी जगह नहीं रह सकता परन्तु आत्मा अनन्त धर्म वाला होने से ज्ञान-गुण-रूप रहता भी है और अन्य सुखादि गुण रूप भी अर्थात जैसे ज्ञान-गुण-रूप रहता है वैसे अन्य गुण भी रहते हैं। भगवन्त का अनेकान्त सिद्धान्त बलवान है । जो एकान्त से ज्ञान को आत्मा कहेंगे तो ज्ञान-गुणमात्मद्रव्य हो जायेगा और जब गुण ही द्रव्य हो जावेगा तो गुण के अभाव से आत्मद्रव्य के अभाव का प्रसंग आवेगा क्योंकि गुण वाला द्रव्य का लक्षण है वह नहीं रहा और जो सर्वथा आत्मा को ज्ञान ही मानेगे । तो आत्मा एक ज्ञान-गुण-रूप ही रह जायेगा । सुख, वीर्यादि गुणों का अभाव होगा । गुण के अभाव से आत्मद्रव्य का अभाव सिद्ध होगा। तब अधार न होने से ज्ञान का भी अभाव हो जायेगा। इस कारण निष्कर्ष यह है कि ज्ञानगुण तो अवश्य है क्योंकि ज्ञान अन्य जगह नहीं रहता परन्तु आत्मा-ज्ञान-गुण की अपेक्षा ज्ञान है अन्य गुणों की अपेक्षा अन्य है। एक आत्मा के अनेक ज्ञान होते हैं इसमें कुछ दूषण नहीं है । ज्ञानगुण से आत्मा भेद-भाव को प्राप्त होता है अर्थात परमार्थ से तो गण-गुणी में भेद नहीं होता क्योंकि द्वव्य, क्षेत्र काल भाव से गुण-गुणी एक है । जो द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव गुणी का है वही गुण का है और जो गुण का है वही गुणी का । इस प्रकार अभेदनय की अपेक्षा एकता जानना । भेद नय से आत्मा में मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय, केवल इन पांच प्रकार के ज्ञानों में से दो, तीन, चार होते हैं । वद्यपि आत्मद्रव्य और ज्ञानगुण की एकता है तथापि ज्ञानगुण के अनेक भेद करने में कोई विरोध का दोष नहीं है क्योंकि द्रव्य कथंचित प्रकार भेदाभेद स्वरूप है। अनेकांत के बिना द्रव्य की सिद्धि नहीं है। इस कारण अनेकान्तज्ञों द्वारा पदार्थ को अनेक प्रकार का कहा गया है । ___ द्रव्य की सिद्धि सातभंगों से ही होती है। प्रवचनसार तथा पंचास्तिकाय" में सातभंगो का वर्णन मिलता है । आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा किये गए स्याद्वाद सूचक सप्तभंगों के उल्लेख से यह जान पड़ता है कि इस समय जैनाचार्य अपने सिद्धान्तों पर होने वाले प्रतिपक्षियों के कर्कश तर्क प्रहारों से सतर्क हो गए थे और यहीं से स्याद्वाद का सप्तभंगमय विकास होता खण्ड १९, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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