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ग्रंथ में उसी को द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय की दृष्टियों का विशेष वर्णन मिलता है | आचार्य कुन्दकुन्द वस्तु की सिद्धि के प्रसंग में लिखते हैं कि मैं उस एकत्वविभक्त आत्मा को आत्मा के निज वैभव द्वारा दिखलाता हूं | जो मैं दिखलाऊं तो उसे प्रमाण स्वीकार करना और जो कहीं चूक जाऊ तो छल नहीं गृहण करना । इसी गाथा की आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृत - चन्द लिखते हैं कि मेरे आत्मा के निजवैभव का जन्म इस लोक में प्रकट समस्त वस्तुओं को प्रकाश करने वाला और स्यात् पद से चिह्नित शब्दब्रह्म अरहंत के परमागम की उपासना से हुआ है । वस्तुस्वरूप के निरूपण की दिशा में आगम का सेवन आवश्यक है और आगम वही है जो स्यात् पद से चिह्नित है । यह शब्द सर्वव्यापी है ।
समयसार ग्रंथ में निश्चयनय और व्यवहारनय का वर्णन प्राप्त होता है । व्यवहारनय का अभूतार्थ और शुद्धनय की भूतार्थ कहा है । यहां पर इसके अभिप्राय को समझना अति आवश्यक है । यदि व्यवहारनय सर्वथा हेय होता तो आ० कुन्दकुन्द उसके वर्णन का कष्ट ही नहीं उठाते। क्योंकि उन्हें तो जिन शासन की प्रभावना करनी थी। जिसका विषय विद्यमान न हो, असत्यार्थ हो उसे अभूतार्थ कहते हैं । इसका भाव है कि शुद्धनय का विषय अभेद एकाकार रूप नित्य द्रव्य है इसकी दृष्टि में भेद नही दीखता । इसलिए इनकी दृष्टि में भेद अविद्यमान असत्यार्थ ही कहना चाहिए। यहां ऐसा नहीं जानना चाहिए कि भेदस्वरूप कुछ वस्तु ही नहीं । यदि ऐसा माना जाये तो जैसे वेदांत मत वाले भेद रूप अनित्य को देख अवस्तु माया स्वरूप कहते हैं और सर्वव्यापक एक अभेद शब्दब्रह्म वस्तु कहते हैं वैसा हो जावेगा । इससे सर्वथा एकान्त शुद्धनय की पक्षरूप दृष्टि का ही प्रसंग आ जायेगा । इसकारण यहां ऐसा जानना कि जिनवाणी स्याद्वाद रूप है । प्रयोजन के वश से नय को मुख्य गौण करती है । भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो प्राणियों को अनादिकाल से ही है और उसका उपदेश भी बहुधा सभी परस्पर करते हैं किन्तु जिनवाणी में व्यवहार का उपदेश शुद्धनय का सहायक जानकर कहा है परन्तु उसका फल संसार ही है और शुद्धनय का पक्ष इस जीब ने कभी नहीं गृहण ही किया तथा उसका उपदेश भी कहीं-कहीं है इसलिए उपकारी श्री गुरु ने शुद्धनय के ग्रहण का फल मोक्ष जानकर उसी का उपदेश मुख्यता से किया है कि शुद्धनय भूतार्थ- सत्यार्थ है । उसी को आश्रय करने से सम्यग्दृष्टि हो सकता है इसके जाने बिना व्यवहार में जब तक मग्न है तब तन आत्मा का ज्ञान श्रद्धान रूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं हो सकता ।
इस प्रसंग में जयसेनाचार्य की टीका विशेष दृष्टव्य है । जिसमें गाथा के द्वितीय व्याख्यान से भूतार्थ और अभूतार्थ के भेद से व्यवहार को तथा शुद्ध निश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय से निश्चयनय को दो प्रकार से कहा है । "
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तुलसी प्रज्ञा
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