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समयसार में निश्चय के साथ व्यवहारनय भी किसी-किसी को किसी काल में प्रयोजनवान है, सर्वथा निषेध के योग्य नहीं है। जो शुद्धनय तक पहुंचकर श्रद्धावान, पूर्ण ज्ञान तथा चारित्रवान हो गये । उनको तो शुद्धनय का उपदेश करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो जीव अपरमभाव अर्थात् श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के पूर्णभाव को नही पहुंच सके तथा साधक अवस्था में ही ठहरे हुए हैं, वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य है । अपरमभाव की स्थिति में श्रावक, प्रमत्त तथा अप्रमत्त गुणस्थान में स्थित साधकों को लिया है। इसी प्रसंग में आत्मख्याति टीका में लिखा है कि यदि तुम जैन-धर्म का प्रवर्तन चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि एक व्यवहार नय के बिना तो तीर्थ व्यवहार का नाश हो जायेगा और दूसरे निश्चय नय के बिना तत्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा । इसी अर्थ का कलश रूप काव्य कहते हैं --- उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसार ते परमज्योतिरुच्चै रनवमनयपक्षा
क्षुण्णमीक्षन्त एव ।। अर्थात् निश्चय-व्यवहार रूप जो दो नय उनमें विषय के भेद से परस्पर में बिरोध है । उस बिरोध को दूर करने वाले स्यात् पद से चिह्नित जिनेन्द्र भगवान् के वचन में जो पुरुष रमण करते हैं, प्रचुर प्रीतिसहित अभ्यास करते हैं । वे पुरुष विना कारण अपने आप मिथ्यात्व कर्म के उदय का वमन कर इस अतिशय रूप परम-ज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्मा का शीघ्र ही अवलोकन करते हैं। यह समयसार रूप शुद्धात्मा नवीन नहीं उत्पन्न हुआ। पूर्व ही कर्म से आच्छादित था वह व्यक्त हो गया तथा वह सर्वथा एकान्तरूप कुनय के पक्ष से खण्डित नहीं होता। आगे वर्णन करते है कि व्यवहार नय को यद्यपि इस प्रथम पटवी में (जब तक शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति नहीं हुई तब तक) जिन्होंने अपना पैर रखा है ऐसे पुरुषों के लिए हस्तावलम्बन तुल्य कहा है, तो भी जो पुरुष चैतन्य चमत्कारमात्र, परद्रव्यभावों से रहित परम अर्थ (शुद्ध नय का विषयभूत) को अन्तरंग में अवलोकन करते हैं, उसका श्रद्धान करते हैं तथा उस स्वरूप में लीनता रूप चारित्रभाव को प्राप्त करते हैं । उनके लिए व्यवहार नय कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है।
नय तो वस्तु स्वरूप को समझने के लिए हैं, वस्तु तो पक्षातिक्रांत है । जीव में कर्म बंधे हुए हैं अथवा नहीं बंधे हुए हैं। इसप्रकार तो नय पक्ष और जो पक्ष से दूरवर्ती कहा जाता है वह समयसार है, निर्विकल्प शुद्ध आत्मतत्व है । जो पुरूष नय के पक्षपात को छोड़कर अपने स्वरूप में गुप्त होकर निरन्तर स्थिर रहते हैं, वे ही पुरुष विकल्प के जाल से रहित शान्तचित्त
खण्ड १९, अंक २
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