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________________ परन्तु यह तो ध्यान में लें कि उत्तरवर्ती काल में लोप, 'य' श्रुति और 'ह' कार की मूल भाषा में जो घुसपैठ हुई है उनको निष्कासित करके मूल व्यंजनों को स्थापित करना घुसपैठ कहलाती है क्या ? उलटी गंगा बहा कर अदालत में अपना वाद स्थापित कर सकेंगे क्या ? तल-स्पर्शी अध्ययन करें, वास्तविकता को समझें और तथ्यों के आलोक में आत्म-निरीक्षण करें। ऐसे कार्य में अपने पूर्व - ग्रहों से मुक्त होकर मिथ्या गौरव और ज्ञानी होने की महत्त्वाकांक्षा का त्याग करना ही उचित है। वस्तुस्थिति क्या थी और क्या हो गई उसे भली भांति समझने की कोशिश करनी चाहिए । जो संशोधन हो रहा है वह भले ही पाश्चात्य शैली का हो परन्तु क्या वह योग्य एवं तथ्यों को उद्घाटित करने वाला है या नहीं इस पर विचार करें । पुनश्च श्रद्धा के बिना नवीन कार्य के प्रति रुचि जागृत नहीं होती है और भक्तिभाव के बिना उद्यम नहीं होता है अतः ये दोनों ही आधारशिला हैं । अब रहा प्रश्न आश्रव और निर्जरा का । जो कोई शुभ भावना से शुभ कार्य करेगा उसको आश्रव लगेगा या निर्जरा यह तो ज्ञानी ही कह सकते हैं, मिथ्या गौरवाकांक्षियों के अभिप्राय का यह विषय क्षेत्र नहीं है । किसी भी सत्य की गवेषणा करने वाले को इस तरह के मिथ्या आक्षेपों से पथ-भ्रष्ट करना दुष्कर एवं अनुचित है। श्रद्धालु और भक्त ऐसे भद्रजन - समुदाय को बहकाने का कार्य न करना ही हितावह होगा अन्यथा श्रुत सेवा के बदले कहीं पर उसकी कु सेवा तो नहीं हो रही है यह जानकर आगे बढ़ना चाहिए । मिथ्या प्रतिबद्धता का त्याग करके सम्यग्दृष्टि से अनेकान्त के आलोक में एकान्त को तिलांजलि देना प्रशस्त माना जाएगा और वहीं मार्ग अपकीर्ति से बचा सकेगा । तर्कसंगत परम्परा का निर्वहन कौन - सा ? और 'भाषा - विज्ञान' की वर्तमान मुहिम किस प्रकार अधिक भ्रामक सिद्ध हो रही है यह भी हमारी समझ में नहीं आ रहा है । कौन से पाठ तीर्थंकरों, गणधरों, आगमधरों और श्रुतधरों के, यह भी निश्चित कर लेना चाहिए। कौनसे संस्करण का विरोध, किस हस्तप्रत का विरोध, फिर चूर्णि का हो या वृत्ति का ? समालोचना * सदा और सर्वत्र प्रशंसनीय होती है परन्तु कु आलोचना निंदनीय बन जाती है । विकृत दलीलों से किसी को भी कुछ लाभ होगा क्या ? यह किस प्रकार की श्रुत सेवा होगी ? Some days ago, I received some of the opinion of Shri Joharimalji Parekh of Jodhpur about your (K.R. * टिप्पण आगे दिये हैं । खण्ड १९, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only १५७ www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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