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आदर्श-विहीन इस भाषा-विज्ञान की दृष्टि से आगम-संशोधन का विरोध होना चाहिए (पृ० २८९)।
[भगवान महावीर ने तो यह भी उपदेश दिया है कि किस जीव का जगना अच्छा है और किसका सोना अच्छा है। आंख मूंदकर परम्परा का मिथ्या सहारा लेने के बजाय तथ्यों के आलोक में अनेक पक्षों का निरीक्षण करके सत्य की शोध की जानी चाहिए-यही नम्र विनंति है.के. आर. चन्द्र
पू० जम्बूवि :- तेरापंथी मुनि नथमलजी ने..... 'अभूतपूर्व वाचना देने के आवेग में नवीन पाठों तथा अनावश्यक कल्पित परिवर्तनों का संयोजन मूल में किया' (पृ० ८८)।
'उनके हाथ से अति प्रवृत्ति भी हुई है।
पू० युवाचार्यजी :--मुनि जबूविजयजी किसी एक प्रति (हस्तप्रत) को मुख्य मानकर पाठ स्वीकार करते हैं। हम किसी एक प्रति को मुख्य नहीं मानते किन्तु अर्थ की समीक्षा कर पाठ को स्वीकार करते हैं। हमारी दृष्टि में चूणि और टीका पाठ-निर्धारण के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। हम उन्हें प्राचीन प्रतियों से अधिक मूल्य देते हैं। जितने प्राचीन आदर्श आज उपलब्ध हैं, उनसे चूणि और टीका अधिक प्राचीन हैं (पृ० ८८-८९)।
___ जंबूवि :-जहां एक व्यंजन मात्र का परिवर्तन भी (शास्त्र की) आशातना-रूप माना जाता हो, वहाँ ऐसे सूत्रपाठों का सर्जन दोषरूप बने, यह स्वाभाविक ही है (पृ० ९२)।
पू० युवा :-मुनिश्री जंबूविजयजी का आग्रह है कि हजारों वर्षों से कंठस्थ करने की जो प्रथा चाल है तथा सैकड़ों वर्षों से उसी प्रकार उसे लिखा जा रहा है, उसे उसी रूप में रखना चाहिए ।
इस दृष्टिकोण से हमारा कोई विरोध नहीं है, किन्तु वास्तव में आगमग्रन्थों की एकरूपता उपलब्ध नही है (पृ० ९६) ।
विभिन्न आदर्शों में विभिन्न प्रकार की वाचनाएं मिलती हैं। संक्षिप्त पाठ भी एक प्रकार के नहीं मिलते। वे भी नाना रूपों में उपलब्ध हैं । टीकाकारों ने संक्षिप्त पाठों की व्याख्या की हैं वहां आदर्शों में विस्तृत पाठ उपलब्ध हैं।
__... ... ." "संक्षिप्त की पूर्ति का काम केवल हमने ही नहीं किया है, वह प्राचीन व्याख्याकारों ने भी किया है।
_ 'इसे आगम में परिवर्तन या उसकी आशातना नहीं कहा जा सकता' (पृ० ९६)।
___ मुनिश्री जम्बूविजयजी ने (ऊपर बतलाये गये) उद्धृत पाठ आदर्शों के
खण्ड १९, अंक २
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