SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. लाख लाख धर्मानुयायी इन पाठों को पवित्र मंत्र समझते हैं, श्रद्धापूर्वक कंठस्थ व नित्य पारायण करते हैं। क्या यह संख्या सही है और कौन से संस्करण का पारायण करते हैं ?] ३. प्राचीन आदर्शों में उपलब्ध एवं सदियों से प्रचलित पाठों में काट-छांट करने से सामान्य जन की आस्था हिलती है, उनमें बुद्धिभेद पनपता है और उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचती है (पृ० २८९)। ४. लेखक ने भी हजारों प्राचीन प्रतियों का अवलोकन, सूचीकरण व प्रतिलिपिकरण किया है पर प्राकृत ग्रन्थों में परसवर्ण अनुनासिक लिखने की पद्धति का अभाव ही पाया है। अनुस्वार से ही काम चलाया गया है (पृ० २८८)। ५. जो कार्य आप श्रुत-सेवा व निर्जरा का कारण समझ कर कर रहे हैं वह ___ कहीं आश्रव व कर्मों का बन्धन तो नहीं है (पृ० २८९)। ६. बिना आदर्श में उपलब्ध हुए कोई भी पाठ स्वीकार न किया जाए। आदर्श-विहीन पाठों की घुसपैठ करना, पाश्चात्य शैली का अनुकरण करना............. "एक अनधिकार चेष्टा है। पाश्चात्य जगत् से आई संपादन की प्रक्रिया आगमों पर लागू नहीं होती है क्योंकि न तो हम सर्वज्ञ हैं.....'न आगमधर । ७. सर्वज्ञों के वचन व्याकरण के अधिकार-क्षेत्र से परे व बहुत-बहुत ऊंचे हैं : ......."आर्ष प्रयोग के अपवाद सर्वमान्य हैं (पृ० २८८)। ___ भाषावली की कठोर सीमा-रेखाएं नहीं खेंची जा सकती हैं (पृ० २८६)। हमारे आगम पुराने हैं और उनके लिए पुरानी दृष्टि ही अधिक उपयुक्त है, क्योंकि वह आगम युग समीपस्थ है (पृ० २८९)। अपने (डा० चन्द्रा) व्याकरण-ज्ञान को......"आगमों पर थोपने की कोशिश न करें (पृ० २८९)। ८. विडम्बना यह है कि डा० चन्द्रा ने अपने सारे निष्कर्ष बिना असल प्रतियों के देखे केवल छपी पुस्तकों (Secondary evidence) के आधार पर निकाले हैं जिन्हें प्रायः साधारण अदालत भी नहीं मानती (पृ० २८७)। [इसका अर्थ यह हुआ कि मजैवि. के संस्करण में पू० पुण्यविजयजी और पू० जम्बूविजयजी ने जो पाठान्तर ताड़पत्र एवं कागज की प्रतियों से दिए हैं वे मान्य एवं अधिकृत नहीं हैं । यह तो विडम्बना की पुनः विडम्बना हो गयी। इस विषय में तीव्र बुद्धि के धनी और शक्तिशाली युक्तिबाज वकील साहेब का क्या कहना है ?] ९. सुधार की ओट लेकर आगम-पाठों में घुसपैठ करना अनुचित है। ४२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy