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जिनागमों का सम्पादन*
(हमारा दृष्टिकोण) . के. आर. चन्द्र, अहमदाबाद
भाषिक दृष्टि से जैन अर्द्धमागधी आगम ग्रन्थों के नवीन सम्पादन के विरोध में एक लेख 'तुलसी प्रज्ञा' में छपा है। आदरणीय लेखक महोदय ने जो मुद्दे उठाये हैं, उनके उत्तर 'आगम सम्पादन की समस्याएं' नामक ग्रन्थ में ही प्राप्त हो रहे हैं अत: उनके अंशों को उद्धृत किया जा रहा है । उसके पश्चात् मूल आगम सूत्रों की हस्तप्रतों, चूणि और वत्ति से भी कुछ प्रमाण दिये गये हैं जिससे वस्तु-स्थिति को सही रूप में समझने में सहायता मिलेगी और अंधकार से प्रकाश की ओर गति हो सकेगी।
पू० मुनिश्री जम्बूविजयजी ने जैन विश्व भारती (श्री तेरापंथ सम्प्रदाय) द्वारा आगमों का जो नया संस्करण प्रकाशित किया है उसके विषय में कुछ आपत्तियां उठायी हैं और उनका जो यथा-योग्य उत्तर दिया गया है। उनके प्रश्न और उनका उत्तर उसी रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं।१. सर्वज्ञों को जिस अक्षर, शब्द, पद, वाक्य या भाषा का प्रयोग अभीष्ट
था वह सूचित कर गये--अब उसमें कोई असर्वज्ञ फेर-बदल नहीं कर सकता । उसकी अपेक्षा अक्षर, व्यंजन, मात्रा भी गलत, कम या अधिक बोलने पर 'ज्ञानाचार को अतिचार' लगता है---प्रतिक्रमण में प्रायश्चित्त करना पड़ता है (पृ० २८७)। [इस दृष्टि से किस संस्करण को सर्वज्ञ. आदिष्ट-अभीष्ट माना जाय ? रायबहादुर धनपतसिंह, आगमोदय, महावीर जैन विद्यालय, जैन विश्व भारती या ब्यावर का संस्करण ? ]
* इस शीर्षक का लेख 'तुलसी प्रज्ञा' में खण्ड १८, अंक ४, फरवरी २८,
१९९३ में श्री जौहरीमलजी का प्रकाशित (पृष्ठ २८५-२९२) हुआ है।
उनके विरोध में आपत्ति के मुद्दे इस प्रकार हैं- 'आगम-सम्पादन की समस्याएं' युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती,
लाडनूं, १९९३, अध्याय १० एवं ११, पृ० ८८ से १०४ (उनके शीर्षक हैं—समालोचना और हमारा दृष्टिकोण एवं आगम की भाषा)।
खण्ड १९, अंक २
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