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________________ आधार पर यथावत् स्वीकार किये, किंतु इससे पाठ - शोधन की प्रक्रियाएं पूर्ण नहीं हुईं। अशुद्ध पाठ बने के बने रहे ( पृ० ९८ ) । बहुत सारे संक्षिप्त पाठ रचनाकार द्वारा किए हुए नहीं हैं । आदर्शों में पाठ बदलते गये हैं ( पृ० ९९ ) । चूर्णिगत आगम- पाठों में" 'लुक् [अर्थात् मध्यवर्ती व्यंजन का लोप ] स्वल्प प्रमाण में मिलता है, वहां उत्तरवर्ती आदर्शो में उनका लोप प्रचुर मात्रा में मिलता है । सूत्रकृतांग- चूर्णि में 'खेतण्णे' पाठ है, आदर्शो में 'खेयन्ने' है । इस पाठ-परिवर्तन के कारण ही अर्थ- परिवर्तन हुआ था । 'खेयन्ने' का अर्थ 'क्षेत्रज्ञ' होना चाहिए वहां 'खेदज्ञ' हो गया (अध्याय १९, पृ० १०० ) । अर्द्धमागधी प्राचीन प्राकृत है । उपलब्ध किसी भी व्याकरण में उसका सर्वांगीण निरूपण नहीं है । उपलब्ध व्याकरणों द्वारा शासित प्राकृत अर्वाचीन [ उत्तरवर्ती, विशेषतः महाराष्ट्री ] प्राकृत है (अ० ११, पृ० १०१) । पाठ - सम्पादन में प्राचीन प्राकृत के रूपों को प्राथमिकता देना आवश्यक है । भाषा - शास्त्रीय प्रमाण से अघोष [ व्यंजन ] पहले घोष बनता है, फिर घोष लुप्त [ मध्यवर्ती व्यंजन का लोप ] हो जाता है । (अ० ११, पृ० १०३) । आगम - सम्पादन के लिए प्राचीन प्राकृत के आधार पर कुछ विशेष पद्धतियों व मानदंडों की प्रस्थापना आवश्यक है। के. आर. चन्द्रा ने * प्राचीन अर्द्धमागधी प्राकृत की मुख्य लाक्षणिकताओं का संग्रह किया है । भाषाशास्त्रीय दृष्टि से आगमों का अध्ययन बहुत अपेक्षित है । अतीत का अनुसंधान करना सम्पादन का एक पक्ष है । मुनिश्री जम्बूविजयजी के शंकायुक्त प्रश्नों के जवाब में इस विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि भाषिक दृष्टि से प्राचीन आगम ग्रन्थों का पुनः संपादन कितना अनिवार्य है । मूल आगम ग्रंथों की हस्तप्रतियां, चूर्णि और वृत्ति हमारे इस कार्य में सहयोगी हो सकती हैं परन्तु किसी भी एक कार्य और उस काल की प्रति को आदर्श मानना और उसी की भाषा को तीर्थंकर, गणधर, श्रुतधर या आगमधर की मूल भाषा मान कर चलना भूल भरा वास्तविकता से विपरीत * देखिए : 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में', पृ० ८०-८४, प्रा. जै. वि. वि. फंड, अहमदाबाद, १९९१-९२ । इसी तरह किसी एक संस्करण से पूर्णतः प्रतिबद्ध हो जाना और उसे ही सर्वज्ञ प्रणीत मानना भी रूढ़िगत सम्प्रदायवाद ही कहलाता है जिसमें अनेकान्तवाद के विपर्यास के सिवाय और क्या होगा । १४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524576
Book TitleTulsi Prajna 1993 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size9 MB
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