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________________ तर्क नहीं है । महावीर ने इसे इस रूप में कहा--"तक्का तत्थं न विज्जइ ।' तर्क हमारे मन की उपज है । तथ्य हमारे तर्क पर आश्रित नहीं हैं। यदि तथ्य हमारे तर्क पर निर्भर रहने लगे तो तथ्य व्यक्तिनिष्ठ हो जाएंगे, वस्तुनिष्ठ नहीं रहेंगे । तथ्य हमारे तर्क के बिना ही अस्तित्व में रहते हैं। हम उन तथ्यों के आधार पर तर्क के ढांचे का निर्माण करते हैं, तर्क के ढांचे के आधार पर तथ्यों का निर्माण नहीं होता है। मनुष्य ने जब से चिन्तन प्रारम्भ किया अहिंसा और प्रेम के पक्ष में युक्तियां देता रहा है। फिर भी संसार में हिंसा अधिक है, अहिंसा कम है। कारण यह है कि अहिंसा तर्क से प्रतिष्ठित नहीं हो सकती । अहिंसा हमारा स्वभाव है। राग-द्वेष विभाव है, वीतरागता स्वभाव है। तार्किक राग-द्वेष की हेयता सिद्ध करते रहते हैं, किन्तु राग-द्वेष में लिपटा मन राग-द्वेष के पक्ष में ही तर्क जुटा लेता है। इसे ही जैन आचार्य दर्शन-मोहनीय कर्म कहते हैं। इस दर्शन-मोहनीय कर्म का क्षयोपशम हो तो स्व-स्वभाव वीतरागता की झलक मिले । यही सम्यक् दर्शन है, जो आध्यात्मिक यात्रा का प्रारम्भ बिन्दु है। यहां विज्ञान के तर्कवाद की एक सीमा है। तर्क स्वभाव को नहीं जान सकता और स्वभाव की झलक पाये बिना अध्यात्म यात्रा प्रारम्भ नहीं होती। स्वभाव की पूर्णोपलब्धि हो अध्यात्म यात्रा का चरम बिन्दु है। स्वभाव के अतिरिक्त विभाव के क्षेत्र में तर्क पूर्णतः प्रतिष्ठित है, किन्तु विभाव से परे स्वभाव के क्षेत्र से तर्क बहिष्कृत ही है । ___ शाश्वत मूल्यवान् स्वभाव ही है। यह तर्कातीत है। प्रेम हमारा स्वभाव है। परमार्थिक प्रेम की तो बात ही क्या, लौकिक प्रेम के लिए भी कोई व्यक्ति ऐसा नहीं कहता कि उसका प्रेम बहुत वैज्ञानिक है अथवा अत्यन्त तर्कसंगत है। गहरे में कहीं यह बात हमारे मन में घर किए हुए है कि तर्क का प्रयोग स्वार्थ के लिए होता है और प्रेम क्योंकि स्वार्थ से ऊपर है इसलिए प्रेम में तर्क का प्रवेश नहीं होता व्यतिषजति पदार्थान्तरः कोऽपि हेतुः । न हि बहिरूपाधीन प्रीतयः संश्रयन्ते । इसलिए जहां तक विभाव है, वहां तक तर्क है । स्वभाव तर्कातीत है। जो स्वभाव नहीं है, उसके लिए जैन दर्शन में विभाव शब्द का प्रयोग होता है। ध्यान देने योग्य बात है कि भरत मुनि ने विभाव शब्द का प्रयोग कारण के अर्थ में किया है । इसका अर्थ यह होता है कि कारण-कार्य का क्षेत्र विभाव है, स्वभाव नहीं। विज्ञान के सिद्धांत पक्ष पर अध्यात्म की दृष्टि से कुछ विचार करने के अनंतर प्रायोगिक विज्ञान पर भी अध्यात्म की दृष्टि से विचार करना समीचीन होगा। तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524575
Book TitleTulsi Prajna 1993 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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