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________________ पहले कहा जा चुका है कि विज्ञान द्वारा उपलब्ध कराये गये तकनीक ने हमें गति प्रदान की है। गति का स्वभाव है ऊष्मा। जितनी गति तेज होगी ऊष्मा उतनी अधिक होगी। विज्ञान का यह सिद्धांत अध्यात्म पर भी लागू होता है। यदि हम किसी चीज को तेजी से करना चाहें तो आस-पास के पर्यावरण से टकरा जाते हैं और उस हड़बड़ाहट में हमारा व्यवहार आवेशपूर्ण हो जाता है। इसलिए जब कोई व्यक्ति जल्दी में होता है तो हम कहते हैं, अभी वह जल्दी में है उससे बात मत करो, जब शांति में होगा तो बात करेगे । गति अशांति की पर्यायवाची है। प्रश्न होता है कि क्या हम अशांति से डरकर गतिशीलता को छोड़ दें। गति कम करने का अर्थ है प्रगति में पिछड़ जाना । ऐसी स्थिति में अध्यात्म को स्थितप्रज्ञता और विज्ञान की गतिशीलता में सामंजस्य होना चाहिए। हमारी प्रज्ञा को अस्थिर शरीर गति नहीं बनाती, मन के राग-द्वेष बनाते हैं । गति हो, किन्तु राग-द्वेष न हो, यह जीवन की कला है । विज्ञान गति दे सकता है, वीतरागता अध्यात्म प्रदान करेगा। अध्यात्म की वीतरागता से जुड़ी विज्ञान की गतिशीलता हमें अनेक अनिष्टों से बचायेगी। प्रकृति में गति के कुछ नियम हैं उन नियमों में काल का महत्त्वपूर्ण योगदान है। प्रसिद्धि है धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय ।। माली सीचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय ॥ विज्ञान ने गति बढ़ाने की धुन में प्रकृति के ऋतु-चक्र के नियमों का उल्लंघन किया है। जल्दी पक जाने वाली फसल जल्दी मोटे हो जाने वाले मुर्गे-मुर्गी--ये विज्ञान की कुछ उपलब्धियां हैं। "जब ऋतु आये फल होय" कहा गया था तो बस उस समय किसी भी अन्न के दाने के तीन भागों पर हमारी दृष्टि थी--एक उसका परिमाण अर्थात् वजन, दूसरा चिकनाहट, तीसरा उसका मिठास । इन तीनों को क्रमश: दधि, घृत तथा मधु कहा गया है। उस अन्न में परिमाण या दधि भाग पृथ्वी से आता है, चिकनाहट या घृत भाग अन्तरिक्ष से आता है और मिठास या मधु भाग सूर्य से उत्पन्न होता है। विज्ञान ने कृत्रिम खाद द्वारा तथा संकर बीज द्वारा पार्थिव भाग का परिमाण तो बढ़ा दिया किन्तु अन्न का स्निग्धभाव तथा माधुर्य भाव कम रह गया क्योंकि विज्ञान उसे नहीं बढ़ा सका। परिणाम यह हुआ कि हमारे आहार की स्निग्धता जो शरीर को पुष्ट करती है और माधुर्य जो मन को तृप्त करता है, कम होते चले गये। शुद्ध बाजरा जो प्राकृतिक खाद से उत्पन्न होता है परिमाण में कम होने पर भी स्निग्ध तथा मधुर अधिक होता है। विज्ञान का भरोसा यन्त्र पर है, मनुष्य पर नहीं। अन्न का परिमाण यन्त्र से तौला जा सकता है, स्निग्धभाव और माधुर्य यंत्र से नहीं तोला जा सकता है। इस खंड १८, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524575
Book TitleTulsi Prajna 1993 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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