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________________ है, न चार्वाकों की दृष्टि के अनुसार पृथ्वी के राजा को परमेश्वर कहा जा सकता है । वह भी पूर्व में कर्मबन्धगत और संसारी ही होता है । इस तरह तीनों मतों में बड़ा अन्तर है । साथ ही कुछ साम्य भी हैं। तीनों दर्शनों में ईश्वर नित्य, चैतन्ययुक्त, क्लेशों से रहित, मुक्त (चाहे नित्यमुक्त हों या बाद में मुक्त हुए हों) एवं पूज्य हैं । ईश्वरवादियों की दृष्टि में ईश्वर की सत्ता जितनी असंदिग्ध है उतनी ही अनीश्वरवादियों की दृष्टि में विवादास्पद । वस्तुत: उपर्युक्त विचारधाराओं के मतभेद संसार की नित्यता, अनित्यता, सष्टिकर्ता एवं कर्म सिद्धान्त की स्वतंत्रता से सम्बद्ध हैं। उपर्युक्त विवेचन के निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि वस्तुतः ईश्वर अनुभूति, भावना, विश्वास और श्रद्धा जैसे पवित्र भावों के दायरे में आता है । इन विचारों से उसकी सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।यदि ईश्वर है तो भी और नहीं है तो भी । दार्शनिक मतभेद तो अपने-अपने विचारों, तर्कों और सिद्धांतों पर आधारित हैं। ईश्वर की सार्वभौमिक सत्ता के विषय में मतान्तर होते हुए भी ध्यातव्य है कि किसी न किसी रूप में ईश्वर को न्याय-वैशेषिक, सेश्वर सांख्य और जैन तीनों स्वीकार करते हैं । ईश्वर अथवा ईश्वरों की भूमिका सैद्धान्तिक दृष्टि से ही नहीं मानसिक, भावनात्मक एवं मनौवैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। शुभंकारी शक्ति के अस्तित्व की अनुभूति और विश्वास से तनाव, दुःख, विपत्ति, सब ओर से निराशा-असफलता के क्षणों में व्यक्ति को एक अव्यक्त सम्बल-सा मिलता है। इसीलिए सम्भवतः सभी धर्मों में पूजा, अर्चना, मन तन की शुद्धि पर बल दिया गया है। आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक कष्टों, मृत्यु, प्राकृतिक आपदाओं जैसे घटनाओं से मुक्ति के संदर्भ में जीवों की वर्तमानकालीन क्षमता बहुत सीमित होती है भले ही वह उसके किसी जन्मों के कर्मफल हों। । उपर्युक्त तीनों दर्शनधाराओं के ईश्वर के सम्बन्ध में साम्य-वैषम्य से स्पष्ट है कि जैनमत में प्रत्येक जीव को परमात्मा बनने की सुविधा हैं अन्यत्र एक सर्वशक्तिमान ईश्वर के होने से ऐसा सम्भव नहीं है । ब्रह्माण्ड अतीव रहस्यमय है और ईश्वर जैसी दैवी शक्तियों का अस्तित्व, चाहे वे किसी भी दर्शन के दृष्टिकोण से हों, निश्चित रूप से असंदिग्ध है। संदर्भ १. लोकसिद्धो भवेद्राजा परेशो नापरः स्मृतः।-सर्वदर्शन संग्रह २. भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ० ३०९ ३. वाक्यपदीप, १११,४ ४. तैतिरीयोपनिषद् ३.११, ब्रह्मसूत्र-११११२, वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली श्लोक २२ ५. मुण्डकोपनिषद् १।११७, विवेकचूड़ामणि श्लोक ११०, शारीरिक भाष्य १६४।३ ६. श्रीभाष्य, पृ० ८० ७. The Six Systems of Indion Philosophy, P. 449 ८. (क) E. Caird, the Critical Philosphy of Cant, Vol, II, Chapter-3 खण्ड १८, अंक ४ ३२७
SR No.524574
Book TitleTulsi Prajna 1993 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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