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________________ दर्शनों द्वारा स्वीकृत ईश्वर के स्वरूप और कार्य में बहुत अन्तर है। न्याय-वैशेषिक, और सेश्वर सांख्य के ईश्वर एक, सर्वज्ञ, विभु, अगोचर, वेदनिर्माता, नित्य, अनादि मुक्त, शुभाशुभ कर्मों के निष्पक्ष दाता, रागद्वेष रहित और अनुग्रही हैं। न्यायवैशेषिक के समान पातञ्जल योग ११२४ में भी ईश्वर को पुरुष विशेष अथवा आत्मा विशेष कहा गया है किन्तु पुरुषतत्त्व में उसका अन्तर्भाव नहीं किया है । ईश्वर दो नहीं हो सकते क्योंकि समान गुण-शक्ति वाले दो ईश्वरों के होने पर पदार्थ के एक की इच्छा के अनुरूप परिणत होने से दूसरे की इच्छा पूरी न होने से उसमें कमी आ जाएगी। जहां तक जैनमत का प्रश्न है ईश्वरवादियों (न्याय-वैशेषिक एवं योग) के समान कर्मनियामक जगत्कर्ता, परमाणु स्पन्दन कराने वाले अथवा प्रकृति-पुरुष का संयोग कराने वाले, अनुग्रही आदि गुणों वाले ईश्वर को न मानने से उनके यहां ईश्वरों के मतभेद की सम्भावना ही नहीं है । अन्य दर्शनों के ईश्वर कभी बन्धगत नहीं होते किन्तु अर्हत् या सिद्ध कर्मबन्धों से युक्त होने के बाद मुक्त होते हैं । संसार के नित्य होने से और कर्म परम्परा के आत्म निर्भर होने से वे न जगत्कर्ता हैं न कर्मफलदाता। अनीश्वरवादियों ने ईश्वरवादी विचारों का खण्डन किया है। वे कहते हैं कि संसार का नियामक परमात्मा इन्द्रियों से नहीं दिखायी देता । इसकी सिद्धि के लिए दिया गया अनुमान प्रमाण ठोस नहीं होने से व्यर्थ हैं। हम घड़े के रचियता कुम्भकार को प्रत्यक्ष देख सकते हैं किन्तु पृथिव्यादि के निर्माता ईश्वर को नहीं । आगम प्रमाण के सम्बन्ध में इनका कहना है कि हिंसा का विधान करने वाले वेद के शब्द प्रामाणिक नहीं माने जा सकते । अनीश्वदवादी की आपत्ति का उल्लेख करते हुए डॉ. राधाकृष्णन लिखते हैं कि यदि ईश्वर संसार का रचयिता है तो उसने दुःख न देकर सुखी संसार ही बनाना था। स्वकर्मवश सुख-दुःख पाने से स्पष्टतः कर्मण्यवस्था स्वतन्त्र हो जाती है । सर्वशक्तिमान के कर्मण्यवस्था में हस्तक्षेप या परिवर्तन न कर सकने से ऐसे ईश्वर की आवश्यकता क्या है ? वह जीवों की बाधा कैसे दूर कर सकता है ? दया लु परमेश्वर को अपने मनोरंजन के लिए तो दुःखमलक संसार की रचना नहीं करनी चाहिए। न्याय-वैशेषिक सम्मत ईश्वर के विषय में अनीश्वरवादी तर्क देते हैं कि चेतना परमात्मा की इच्छा से अचेतन परमाण में स्पन्दन असम्भव है। अतः संसार ईश्वर की कृति न होकर नित्य है। मुक्तात्मा का पृथक अस्तित्व (न कि अद्वैत वेदान्त के समान एक ब्रह्म में लय) स्वीकार करने वाले न्याय-वैशेषिक एवं योग में जैनों के समान उनमें ईश्वरत्व नहीं माना जाता । न्यायवैशेषिक के मुक्तात्मा योग एवं जैन मतों के विपरीत चैतन्य शून्य या ज्ञानरहित ही हो जाते हैं। जैन दर्शन में अपना-अपना पृथक् अस्तित्व रखने वाले मुक्त जीव परमात्मा हैं। जैन मत की मौलिकता है कि प्रत्येक आत्मा कृतकर्मों का विनाश कर परमात्मा बन सकता है। एक तरह से अद्वैत वेदान्त में भी जीव मुक्त होकर ब्रह्म या परमात्मा हो जाते है किन्तु वे पृथक् अस्तित्व वाले न होकर एक सत्ता के अंश अर्थात् ब्रह्ममय हो जाते हैं ।३५ जैन विचारानुसार वेदों का रचयिता, संसार और जीवों का शासक, नियामक, कर्मफलदाता, निमित्त एवं उपादानकारण रूप ईश्वर नामक कोई तत्त्व नहीं ३२६ तुलसी प्रज्ञा
SR No.524574
Book TitleTulsi Prajna 1993 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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