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ईश्वर में अर्पण किए जाते हैं ।२२ इससे अनेक लाभ बताए गए हैं-समाधिलाभ, कैवल्य, विघ्नक्षय इत्यादि ।२३ उदयवीर शास्त्री निरीश्वर सांख्य दर्शन में भी ईश्वर के उक्त अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। सूत्रकार और भाष्यकार व्यास ने मात्र योग के चरम लक्ष्य तक पहुंचाने में ईश्वर का उल्लेख सहायक साधन के रूप में किया है किन्तु कुछ व्याख्याकारों ने उसे सृष्टि के निमित्त कारण के रूप में बताया है।"
जैन मत के अनुसार आत्मा के मलिन और निर्मल स्वरूप के आधार पर तीन भेद कहे जा सकते हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा । पूर्ण और निर्मल केवल ज्ञान की प्राप्ति से अपने चैतन्य स्वरूप और लोकालोक की समस्त वस्तुओं को जानने वाले आत्मा की स्थिति को परमात्मा नाम दिया गया है। अतएव कर्मबन्धों से रहित मुक्त जीव परमात्मा है, जीवन्मुक्त जीव अर्हत और विदेह मुक्त (सिद्धशिला में स्थित) जीव सिद्ध कहलाते हैं। मुक्त जीव या जैन सम्मत परमात्मा अपने ज्ञान से सभी वस्तुओं को व्याप्त करने से विष्णु, अखण्ड ब्रह्मचर्य वाला होने से परब्रह्म और केवलज्ञान रूप ऐश्वर्यवश ईश्वर नाम से सम्बोधित किया जाता है ।" यह अनादिमुक्त परमात्मा न होकर मोक्षमार्ग का उपदेशक, सर्वज्ञ, सादिमुक्त ईश्वर है। जैनविचार में संसार नित्य है एवं जीव अपने सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता स्वयं है। इनके द्वारा मान्य कर्म-सिद्धान्त इतना सुदृढ़ और स्वतंत्र है कि वह जीव के जीवन के प्रत्येक पहलू का निर्माण स्वयं कर लेता है। इसीलिए संभवतः जैनाचार्यों ने कर्मनियामक ईश्वर की आवश्यकता नहीं अनुभव की । अपने पुरुषार्थ और अनन्तवीर्य के कारण कर्मशक्ति को छिन्न-भिन्नकर प्रत्येक संसारी जीव आराध्य एवं श्रद्धेय बन सकता है। जैन धर्मानुयायी जिनों एवं सिद्धों की पूजा करते हैं और उन्हें आदर्श मानकर उनके समान बनने का प्रयास करते हैं। इनके सिद्धांतों की दृष्टि से देखा जाए तो सिद्ध रागद्वेष रहित होने से पूजा-श्रद्धा का प्रतिफल स्वयं नहीं दे सकते हैं । इस प्रसंग में प्रो० मूर्ति लिखते हैं कि यद्यपि वास्तविक तथ्य तो यही है किन्तु अनेक जैन विचारकों ने महावीर को धार्मिक आस्था और रहस्यपूर्ण भक्ति का विषय बनाते हुए उनके लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जैसे वेदान्ती ब्रह्म के लिए करते हैं।"
अपने मत की पृष्टि में वह सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य हेमचन्द्र के मतों का उदाहरण देते हैं जैसे महावीर की तुलना सारी नदियों के संगम रूप समुद्र से की गयी है । उसे आत्मस्वरूप मानकर प्रार्थना की गयी है कि वह अवर्णनीय, भावनागोचर और इन्द्रियातीत है । सागर, अवर्णनीय जैसे शब्द इस भ्रम के कारण हैं । सम्भवतः ईश्वर की तरह पूज्य मानने के कारण जैनाचार्यों ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया हो किन्तु जहां तक वेदान्त के ब्रह्म के समान मानने का प्रश्न है, जैन सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में ऐसा कदापि सम्भव नहीं है " वैसे तो सभी अर्हत् या जिन एक ही स्थिति के होते हैं किन्तु तत्त्वोपदेष्टा अर्हत् (तीर्थंकर) अन्य प्राणियों के हितार्थ उन्हें तत्त्वों की यथार्थता, अहिंसा, समभाव इत्यादि का उपदेश देते हैं । जीवित दशा में अर्हतत्व और मरने के बाद सिद्धत्व परमपद है ।३२
इस प्रकार न्याय-वैशेषिक, योग और जैन दर्शनों में ईश्वर मान्य हैं किन्तु तीनों
खंड १८, अंक ४
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