________________
न्याय-वैशेषिक, योग एवं जैन दर्शनों के संदर्भ में ईश्वर
- डॉ० कमलापंत
महर्षि व्यास के शब्दों में स्वतः ईशनशील अर्थात् इच्छामात्र से सम्पूर्ण जगत् का उद्धार करने में समर्थ शक्ति 'ईश्वर' है- 'इच्छामात्रेण सकलजगदुद्धरणक्षमः' (योगसूत्र १२४ की व्याख्या) । संसार की प्रायः सभी जातियों, धर्मों और भाषा के अनुयायी परमपिता परमेश्वर को मानते हैं । यद्यपि नाम अलग-अलग हैं। ईश्वर शब्द से प्रायः प्रत्येक भारतीय मानस सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, सृष्टिकर्ता, नियन्ता आदि अलौकिक गुणों से मण्डित एक अव्यक्त शक्ति के संकेत को मानता है। इसे ईश्वर, परमेश्वर, परमात्मा, ब्रह्म इत्यादि विविध नामों से सम्बोधित किया जाता है। अधिकांश भारतीय दर्शनों में ईश्वर नामक पृथक तत्त्व जीवों द्वारा पूज्य है । चार्वाक, बौद्ध, जैन, निरीश्वर सांख्य एवं मीमांसकों ने ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं की है। चार्वाक ईश्वर की अलौकिक सत्ता का खण्डन कर पृथिवी के राजा को परमेश्वर मानते है। बौद्ध एवं जैन विचारक अपने-अपने धर्म प्रवर्तकों को ईश्वर की संज्ञा देते हैं। मीमांसा दर्शन में प्राणियों के कर्मफलदाता के रूप में 'अदृष्ट अथवा अपूर्व नामक एक शक्ति की कल्पना। की गयी है।' वैयाकरणों, न्याय-वैशेषिकों, योग दार्शनिकों एवं वेदान्तियों ने ईश्वर का अस्तित्व माना है।
वैयाकरण शब्द की परा अवस्था (स्फोट) को ईश्वर स्वीकार करते हैं। न्यायवैशेषिक में ईश्वर जगत् की रचना-पालन-संहार करने वाला, कर्मफलदाता, इच्छा से परमाणु स्पन्दन करने वाला एवं जीवों को उनकी प्रवृत्ति के अनुसार विविध कार्यो में लगाने वाला है । योगसम्मत ईश्वर सर्वथा निर्लेप एवं निर्गुण है। शंकराचार्य द्वारा मान्य ईश्वर पारमार्थिक है। जगत् एवं ईश्वर की सत्ता में अन्तर है। माया के आधार पर ईश्वर संसार का उपादान कारण विर्वत सिद्धांत की दृष्टि से बनता है। रामानुज सिद्धांत का ईश्वर जीवों का नियामक, अत यामी, कर्मफलदाता और उनसे पृथक् पदार्थ है क्योंकि जीव और जड़ उसके शरीर है । ईश्वर की ऐसी ही कल्पना करते हुए माधवाचार्य इसे अन्य पदार्थों से सर्वथा पृथक् स्वीकार करते हैं । प्रस्तुत लेख में मुख्यतः न्यायवैशेषिक, योग एवं जैन सम्मत ईश्वर के स्वरूप पर संक्षिप्त तुलनात्मक दृष्टि से प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है
न्याय-वैशेषिक में ईश्वर को एक पृथक तत्त्व न कहकर आत्मा द्रव्य के दो अवान्तर भेद माने गए हैं-जीवात्मा और परमात्मा। इस तरह ईश्वर का आत्म रूप द्रव्य में अन्तर्भाव हो जाता है। इनके विचार के विषय में मैक्समूलर लिखते हैं कि
खंड १८ अंक ४
३२३