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पन्थ में भी अन्य साहित्यिक विकास की तुलना में संस्कृत नाटक साहित्य का विकास, होना अभी अवशेष हैं । प्रारंभिक रूप में कुछ एकांकी अवश्यलिखे गए हैं किन्तु निकटवर्ती अतीत काल में संस्कृत के विकास को देखते हुए भविष्य में नाटक साहित्य का भी यथेष्ट विकास हो सकेगा, ऐसी सम्भावना खोजी जा सकती है ।
तेरापन्थ के संस्कृत साहित्य के उद्भव और विकास की संक्षिप्त प्रस्तुति इस निबन्ध में हुई है है । अनवगति और अनुपलब्धि के कारण संभव हैं पूर्ण परिचिति में कुछ अवशेष भी रहा हो फिर भी उपलब्ध साहित्य का यथासंभव परिचय देने का प्रयत्न किया गया है । विक्रम की बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्थ और इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में तेरापंथ धर्म संघ ने संस्कृत वांड्यय को विभिन्न नए उन्मेष प्रदान किए हैं । अतीत के सिंहावलोकन के आधार पर अनागत का योग और अधिक मूल्यवान हो सकेगा, ऐसी आशंसा स्वाभाविक है।
महावीराष्टकम्
उन्नता चरणे श्रद्धा, वृद्धा सा पापकर्मणि । सन्नद्धा स्वात्मसंज्ञाने, देव ! भूयात् सदा मम ।।१।। सत्कृतो वाऽसत्कृतो वा, त्वया स्यां स्यां न वा पुनः । वीतरागो यतोऽसि त्वं, त्वं सदा सत्कृतो मया ।।२।। स्नेहार्दैश्चक्षुषोष्पिः, क्षालितौ चरणौ तव । क्षालयेराकृति नाप्तश्चापि मे मानसं मलम् ।।३।। अदृश्यो यदि दश्यो न, भक्तेनाऽपि मया प्रभो! स्याद्वादस्ते कथं तर्हि, भावी मे हृदयं गमः ।।४।। अर्पयामि मनोभावं, ग्राह्य विनिमये किमु । हा ! बुद्धोस्मि क्षणेनापि, फलाशा दोषदार्पणे ॥५॥ तवाहमिति मे बुद्धिः, त्वं ममेत्यपि सादरम् । परे जानन्तु मा वा किं, साक्ष्यापेक्षोऽसि सर्ववित् ।।६।। किं करोमि तवाऽर्थ हे, देव ! नापेक्ष्यता मिति । ममार्थं कि विधाताऽसि, ममापेक्षा महीयसी ॥७॥ कर्तृत्वमात्मनोऽपास्य, भक्तानां किं करिष्यसि । यत्कृतं तत्कृते हेतुर्भवेः स्यां सदृशस्तव ॥८॥
-युवाचार्य महाप्रज्ञस्य
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तुलसी प्रज्ञा