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तेरापंथ का संस्कृत साहित्य : उद्भव और विकास ४
- मुनि गुलाब चंद निर्मोही'
चित्रमय काव्य ___ संस्कृत काव्य की एक और विधा है--चित्रमय काव्य । यह विधा बहुत ही जटिल और क्लिष्ट है । इसमें रचना करना अगाध पांडित्य का सूचक है। इसके लिए गहरे अध्यवसाय की आवश्यकता होती है । विक्रम की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के लगभग वाग्भट्ट ने अपनी कृति “वाग्भट्टालंकार' में चित्रमय श्लोकों का दिग्दर्शन कराया है । चित्रमय काव्य की रचना जटिल और क्लिष्ट होने के कारण अधिक प्रसारित नहीं हो सकी । सोलहवीं शताध्दी के पश्चात् तो वह लुप्तप्रायः हो गई। किन्तु इस लुप्तप्रायः काव्य रचना की विधा को तेरापंथ धर्मसंघ में पुनर्जीवन प्राप्त हुआ है ।
जब चित्रमय काव्य रचना का प्रसंग आया तो अनेक साधुओं ने एक साथ उसमे प्रवेश किया और पर्याप्त सफलता प्राप्त की। यह चमत्कारी काव्य रचना विद्धद् मानस में चमत्कार उत्पन्न करती है। गुजरात के प्रसिद्ध विद्वान् श्री हीरालाल रसिकलाल कापडिया ने जब तेरापंथ की सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करते हुए चित्रमय श्लोक रचना का क्रम देखा तो हर्ष और आश्चर्य में डूब गए। उन्होंने कहा सोलहवीं शताब्दी के पश्चात् इस लुप्त काव्य रचना के प्रकार को आज मैं पहली बार देख रहा हूं।
इस काध्य रचना को देखने मात्र से काव्यकार की गहराई का अन्दाज लगाया जा सकता है । तेरापंथ के अनेक साधु कवियों ने इस प्रकार की काव्य रचना की। उनकी समग्र रचनाओं का संकलन किया जाए तो कई ग्रन्थ तैयार हो सकते हैं। संस्कृत के क्षेत्र में काव्य रचना का यह प्रकार तेरापंथ की एक विशिष्ट देन है। अवगति स्वरूप चित्रमय काव्य के कुछ श्लोक यहां उद्धृत किए जाते हैं ।
खंड १८, अंक ४
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