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________________ उन दिनों कई प्रकार की युद्ध प्रणालियां प्रचलित थीं जिनके नाम हैं यथा धर्म युद्ध, दृष्टियुद्ध, जल युद्ध और मल्ल युद्ध । साधारणतया युद्ध प्रत्यक्ष रूप से ही लडे जाते थे। युद्ध के दौरान शंख एवं भेरी वादन होता रहता था।४१ युद्ध में तलवार, ढाल, खड्ग, चक्र, नाराच, गदा, मूसल, धनुष, बाण आदि शास्त्रों का प्रयोग किया जाता था।४२ युद्ध के दौरान संदेश बाण के माध्यम से भेज जाते थे। जिनसेन ने युद्ध में दिव्यास्त्रों के प्रयोग किये जाने का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है । सुदर्शन चक्र एक घातक शस्त्र था । वज्र नामक शस्त्र १२ योजन की दूरी तक मार कर सकता था। जब यह शस्त्र चलता तो उसमें से तीव्र ध्वनि निकलती थी। युद्ध में आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, मोहनास्त्र, वायव्यास्त्र (आकाश में चलने वाला), माहेन्द्रास्त्र (शत्रु को काटनेवाला), नागास्त्र (अग्नि के समान ज्वलनशील एवं देदिप्यमान), गरुड़ास्त्र (नागास्त्र को ग्रसने वाला), महाश्वसनास्त्र (तीव्र आंधी चलाने बाला), महास्त्र, तामास्त्र, अश्वग्रीवास्त्र, ब्रह्मशिरशास्त्र और चक्ररत्नास्त्र का प्रयोग किया जाता था। जिस युद्ध में एक राजा से अनेक राजा युद्ध करते थे वह अन्याय युद्ध और जिसमें एक राजा से एक राजा युद्ध करता था वह धर्म युद्ध कहलाता था ।४५ युद्ध की तैयारी हेतु शस्त्रों का भंडारण किया जाता था। शस्त्र भंडार को आयुधशाला कहा जाता था। युद्ध संचालन हेतु अनेक युद्ध प्रणालियां प्रचलित थीं। जिनमें चक्रव्यूह और गरुड़ व्यूह पद्धतियां अधिक लोकप्रिय थी। __ चक्रव्यूह प्रणाली में चक्राकार व्यूह रचना के १००० आरे थे। एक-एक आरे में एक एक राजा स्थित होता था। एक एक राजा के पास १००-१०० हाथी, २-२ हजार रथ , ५-५ हजार घोड़े और १६-१६ हजार पैदल सैनिक होते थे। चक्र की धारा के पास ६ हजार राजा स्थित होते थे और उन राजाओं के हाथी, घोड़ों आदि का परिमाण पूर्वोक्त परिमाण से चौथाई भाग होता था । चक्रभाग के मध्य में मुख्य योद्धा होता था और उसके साथ ५००० प्रमुख योद्धः होते थे । कूल के मान को धारण करने वाले धीर वीर पराक्रमी पचास राजा अपनी सेना के साथ चक्रधारा की सन्धियों पर अवस्थित होते थे। आरों के बीच के स्थान अपनी विशिष्ट सेनाओं से युक्त राजाओं के सहित थे। इसके अलावा व्यूह के बाहर भी अनेक राजा नाना प्रकार के व्यूह बनाकर स्थित रहते थे। चक्र व्यूह को भेदने के लिये वासुदेव कृष्ण ने गरुड़ व्यूह की रचना की थी । युद्ध में दोनों पक्षों को उनके मित्र राजा हाथी, घोड़ो, रथों तथा पैदल सैनिकों से सहायता करते थे। कई बार मित्र राजा युद्ध में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर भाग लेते थे। न्याय व्यवस्था राजा राज्य का प्रधान न्यायधीश था। वह अपराधियों को नियमानुसार दण्ड देता था। जब कोई व्यक्ति राजा के पास स्वयं पर अन्याय होने की शिकायत करता तो इसकी जांच गुप्तचरों से करवाई जाती थी। राज्य में कुछ लोग न्याय शास्त्र के ज्ञाता ३१२ तुलसी प्रज्ञा
SR No.524574
Book TitleTulsi Prajna 1993 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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