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________________ १. सन्तो निसर्गादुपकारिणो यत् ।९ (सन्त स्वभाव से उपकारी होते हैं ।) २. ते कल्पनायानमुपेत्य न स्युर्यत्, पारपन्त्र विहितान्तारायाः ॥ ३. सन्तो पुरोगा हि भवन्ति नित्यं, . निसर्गतः सर्व विधौकृताज्ञा ॥" ४. कणः कणः स्वागतमूर्ध्वमुाः ।६२ (भाग्यशाली व्यक्ति का पृथ्वी का कण-कण स्वागत करता है।) ५. प्रकामवासेन नयेत भक्तिह्रासं..." (एक स्थल पर निरन्तर रहने से भक्ति का ह्रास होता है ।) ६. अर्धाङ्गनान्या हि विपत्तिकाले । (विपत्ति के समय अर्धाङ्गिनी भी परायी हो जाती है।) ७. यतो न लोभात् परमस्ति पापम् ।६५ (लोभ से बड़ा कोई पाप नहीं है ।) ८. दशा समत्वं समतां प्रसूते । (समत्व दशा समता को उत्पन्न करती है ।) ९. सदर्शनं यन्नयनं पुनाति । (सज्जन व्यक्तियों के दर्शन से आंखें पवित्र होती हैं ।) १०. मान्या गिरः संयमिनां हिताय ।६८ (लोक मंगल के लिए सयमियों-मुनियों के वचन को मानना चाहिए।) ११. प्राभातिको मानसिकः पवित्रः, ___संकल्प ऊर्ध्व दिवसं पुनाति ॥६९ (प्रातःकाल में किया गया पवित्र मानसिक संकल्प सम्पूर्ण दिवस को पवित्र करता है।) १२. न खल यत्र भवेन्निजसत्कृति - श्चरणमेव न तत्र सुधीर्धरेत् ॥ (जहां पर स्वयं का सत्कार नहीं होता वहां पर सुधीजन एक पैर भी नहीं रखता।) १३. पाऽनुपमस्ति धनं महिलाश्रितम् । (लज्जा स्त्रियों का अनुपम धन है ।) १४. न पवनो नियतं व्रजति क्वचित् ।७२ (पवन कहीं भी निश्चित गति से नहीं चलता।) इस प्रकार अनेक हृद्य साधूक्तियों का विन्यास हुआ है। उद्देश्य उद्देश्य वह तत्त्व है जिसकी मूल-प्रेरणा से ही कवि या कलाकार अपनी कृति में कलात्मकता, विधानात्मक-कुशलता, सौंदर्य-दृष्टि एवं रमनीयता आदि का मृजन करता है। इसमें किसी विशेष सिद्धांत की स्थापना, मानवता और मानव-मूल्यों की तुलसी प्रज्ञा
SR No.524574
Book TitleTulsi Prajna 1993 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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