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व्याख्या, मनुष्य के शाश्वत भावों, अनुभूतियों और समस्याओं का समाधान आदि निहित रहते हैं । वह उद्देश्य कवि की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है।
विवेच्य काव्य का मुख्य लक्ष्य संसार की असारता का प्रतिपादन कर निर्वाण मार्ग की प्रतिष्ठापना करना है । वस्तुतः कवि निर्वाणमार्गी है और संसार की असारता को समझ चुका है इसलिए उसकी कृति का उद्देश्य भी उसके जीवन से सम्बद्ध है । "यह सम्पूर्ण जगत् मोहविलास है" इस तथ्य का निरूपण अधोविन्यस्त श्लोक में किया गया है :--
हा स्नेहेन ! भ्रान्ताभ्रान्ति,
श्रितवत्यहमह मोहविलसितम् । जडतां सुधियोप्यश्रुवतेतः,
___ कास्तु जडानां गतिस्तदानीम् ॥७२ अन्त में लगभग सभी प्रमुख पात्रों की परिणति मुनि-धर्म (निर्वाण) में होती है।"
इस प्रकार विवेच्य काव्य अनेक काव्य तत्त्वों से सम्बलित है । यह ग्रन्थ आधुनिक संस्कृत साहित्य का महाय॑ धरोहर है । इसका शीघ्र प्रकाशन अपेक्षित है । इस पर एक बृहद् शोध-प्रबन्ध लेखन की आवश्यकता है।
सन्दर्भ : १. काव्यप्रकाश १.१
१६. , ३.३२ २. काव्यमीमांसा, चतुर्थ अध्याय पदवाक्य १७. , ५.४-१७ विवेक पृ० २७
१८. अरस्तू का काव्यशास्त्र (डा० नगेन्द्र ३. तत्रैव
__द्वारा अनुदित) पृ० २२ ४. रत्नपालचरित (अप्रकाशित खंडकाव्य, १९. शील' निरूपण सिद्धान्त और विनियोग पाँच सर्गों में निबंधित) १.१
पृ० १ ५. तत्रव १.२
२०. रत्नपालचरित ३.२१
२१. तत्रैव ३.२२ ७. रघुवंश महाकाव्य २.५७
२२. ,, ३.२४ ८. रत्नपालचरित १.११
२३. ,, ३.२९ ९. तत्रैव १.३१-३७ १०. , १.३१
१.१० ११. , २.७-२८
१.१२ १२. ,, २.८
२७. ,, १.२२-२४ १३. , ३.१-९
२८. ,, २.३० ३.२८-३५
, २.५५ १५. , २.९
खण्ड १८, अंक ४
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