SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एवं विकल्प प्रवणोऽवनीशोऽ नल्पप्रमोदेन पुरश्चचाल । सन्तः पुरोगा हि भवन्ति नित्यं, निसर्गतः सर्वविधौ कृताज्ञाः ॥२ तृतीय एवं चतुर्थ चरण का समर्थन पूर्वार्ध के द्वारा किया गया है। या 'निपुण नृपति सदा आगे चलने वाला था।' इसके समर्थन के लिए 'सन्तः--कृताज्ञाः' रूप सूक्ति का न्यास किया गया है। अन्य उदाहरण १.६, २.३, २३, ३०, ३२, ४६, ५१, ५३, ३.४, ३.१० द्रष्टव्य है। रूपक उपमेय पर उपमान का निषेध रहित आरोप को रूपक कहते हैं। उपमान उपमेय के अभेदारोप रूपक है ।५२ विवेच्य काव्य में अनेक स्थलों पर इसका विनियोजन हुआ है। उदाहरण :-- जय जय दस्युतमोऽभ्रमणे ।५४ यहां दस्यु में तम का आरोप हुआ है। जय जय सुकृतोम्भोजसरो।" तन्मध्यगस्यैक मणेः प्रकाशो, प्रकाशयत् त्वां मम भाग्यचान्द्वम् ॥६ अन्य उदाहरण ३.१०, १४, १६, ४.२९, ५.१५ द्रष्टव्य हैं । कायलिंग जब वाक्यार्थ या पदार्थ के रूप में कारण का कथन किया जाए तो वहां काव्यलिंग अलंकार होता है। जीवन्नयं नैव हिताय मे स्यात्, भयं यतो राज्य निबद्ध मेव ॥१९ __ उपरोक्त अलंकारों के अतिरिक्त व्यतिरेक २.४, ३९, ३.१६, २० उत्प्रेक्षा ३.२०, ३२८, उदात्त ३.२४, ५.९ परिकर १.२२, २३, अर्थापति २.२९, ३.१८, २९, ४.३, दृष्टान्त २.२२, २.४२, ३.१०, विनोक्ति २.४८ श्लेष २.५४ पर्याय ३.२, विशेषोक्ति ५.१३ आदि का सुन्दर प्रयोग हुआ है। सूक्ति-सौन्दर्य सूक्ति से काव्य-चमत्कार संवधित होता है । सूक्तियों एवं मुहावरों के माध्यम से कठिन से कठिन विषय को सहजता पूर्वक निरूपित कर दिया जाता है। जब महाप्रज्ञ जैसे आचार्य, उपदेशक, दार्शनिक एवं सिद्ध-चिन्तक काव्यारण्य में प्रवेश करते हैं तब सूक्ति-लताओं को लहलहाना उचित ही है। कवि महाप्रज्ञ की लगभग सभी कृत्तियों में साधु-सूक्तियों का शैली-चमत्कार कारक विन्यास हुआ है। विवेच्य काव्य में उपलब्ध कुछ सूक्तियों का उदाहरण द्रष्टव्य है : खंड १८, अंक ४ ३०५
SR No.524574
Book TitleTulsi Prajna 1993 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy